________________
३५
बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६ में संस्थान-आकारविशेष जिस कर्म के उदय से उत्पन्न होता है, उसे संस्थाननामकर्म कहते हैं। शरीर का अमुक-अमुक प्रकार का आकार बनने में संस्थाननामकर्म कारण है। उसके छह भेद इस प्रकार हैं
(१) समचतुरस्र, (२) न्यग्रोधपरिमण्डल, (३) सादि, (४) कुब्ज, (५) वामन और (६) हुण्ड । इनके लक्षण इस प्रकार हैं
(१) सामुद्रिकशास्त्र में बताये गये लक्षण और प्रमाण से अविसंवादी चारों दिविभाग जिस शरीर के अवयवों में समान हों, उसे समचतुरस्र कहते हैं। यानी जिस शरीर में सामुद्रिकशास्त्र में जिस प्रकार से शरीर का प्रमाण और लक्षण कहा है उसी रूप में शरीर का प्रमाण और लक्षण हो तथा पालथी मारकर बैठने से जिस शरीर के चारों कोण समान हों, यानी आसन और कपाल का अन्तर, दोनों घुटनों का अन्तर, दाहिने कन्धे और बायें जानु का अंतर, बांये कंधे और दाहिने जानु का अन्तर समान हो, उसे समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं और इसका हेतुभूत जो कर्म वह समचतुरस्र संस्थाननामकर्म कहलाता है।
(२) न्यग्रोध-वटवृक्ष के जैसा परिमण्डल-आकार जिस शरीर में हो उसे न्यग्रोधपरिमण्डल कहते हैं। अर्थात् जैसे वटवृक्ष का ऊपरी भाग शाखा, प्रशाखा और पत्तों आदि से सम्पूर्ण प्रमाणवाला सुशोभित होता है और नीचे का भाग हीन (सुशोभित नहीं) होता है, उसी प्रकार जिस शरीर में नाभि से ऊपर के अवयव सम्पूर्ण लक्षणयुक्त और प्रमाणोपेत हों और नाभि से नीचे के अवयव लक्षणयुक्त एवं प्रमाणोपेत न हों, वह न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान कहलाता है और उसके हेतुभूत कर्म को न्यग्रोधपरिमडल संस्थाननामकर्म कहते हैं।
(३) तीसरे संस्थान का नाम सादि है। जो संस्थान आदि सहित हो उसे सादि कहते हैं। यहाँ आदि शब्द से उत्सेध जिसकी संज्ञा है, ऐसा नाभि से नीचे का भाग ग्रहण करना चाहिये। जिससे आदिनाभि से नीचे का देहभाग यथोक्त प्रमाण, लक्षणोपेत हो, उसे सादि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org