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पंचसंग्रह : ३ होने में हेतुभूत जो कर्म हो वह वज्रऋषभनाराच संहनननामकर्म कहलाता है।
(२) जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचनाविशेष में दोनों तरफ मर्कटबंध हो और तीसरी हड्डी का वेठन भी हो, लेकिन तीनों हड्डियों को भेदने वाली कीली सरीखी हड्डी न हो, उसे ऋषभनाराच कहते हैं और इस प्रकार के बन्धन में हेतुभूत कर्म को ऋषभनाराच संहनननामकर्म कहते हैं ।
(३) हड्डियों की जिस रचनाविशेष में दो हड्डियां मात्र मर्कटबंध से बंधी हुई हों, उसे नाराच कहते हैं और उसके हेतुभूत कर्म को नाराच संहनननामकर्म कहते हैं । . (४) जिसके अन्दर एक बाजू मर्कटबंध है और दूसरी बाजू हड्डी रूप कीली का बंध हो उसे अर्धनाराच कहते हैं और उसका हेतुभूत कर्म अर्धनाराच संहनननामकर्म कहलाता है।
() हड्डियों की जिस रचनाविशेप में मर्कटबंध और वेठन न हो, मात्र कोली से हड्डियां जुड़ी हुई हों, उसे कीलिका कहते हैं और उसका हेतुभूत कर्म कीलिका संहनननामकर्म कहलाता है।
(६) जिस अस्थिरचना में हड्डियों के सिरे-छोर परस्पर स्पर्श करते हुए हों और जो हमेशा तेलमर्दन आदि की अपेक्षा रखता है उसे सेवार्त संहनन और उसके हेतुभूत कर्म को सेवार्त संहनननामकर्म कहते हैं। ____संस्थान- अर्थान् आकारविशेष । ग्रहण किये हुए शरीर की रचना के अनुसार व्यवस्थित और परस्पर संबद्ध हुए औदारिक आदि पुद्गलों
१ ऋषभनाराच, कीलिका और सेवार्त संहनन के लिए दिगम्बर कर्मसाहित्य
में वज्रनाराच, कोलित और असंप्राप्तस्रपाटिका संहनन शब्द का प्रयोग किया है।
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