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________________ २४ पंचसंग्रह : ३ हास्यादिषट्क के लक्षण इस प्रकार हैं १-जिस कर्म के उदय से कारण मिलने पर अथवा बिना कारण के हँसी आती है, उसे हास्यमोहनीयकर्म कहते हैं । २-जिस कर्म के उदय से बाह्य अथवा आभ्यन्तर वस्तु के विषय में हर्ष-राग-प्रेम हो उसे रतिमोहनीयकर्म कहते हैं। अर्थात् इष्ट संयोग मिलने पर 'यह अच्छा हुआ कि इस इष्ट वस्तु की प्राप्ति हुई', ऐसी जो आनन्द की अनुभूति है, वह रतिमोहनीयकर्म है। ३-जिस कर्म के उदय से बाह्य अथवा आभ्यन्तर वस्तु के विषय में अप्रीतिभाव पैदा हो, अनिष्ट संयोग मिलने पर ‘ऐसी वस्तु का संयोग कहाँ से हुआ, उसका वियोग हो तो ठीक', इस प्रकार का खेदभाव पैदा हो, उसे अरतिमोहनीयकर्म कहते हैं। ४-जिस कर्म के उदय से प्रिय वस्तु के वियोग आदि के कारण छाती कूटना, आक्रन्दन करना, जमीन पर लोटना, लम्बी-लम्बी सांसें लेना आदि रूप मनोवृत्ति होती है, उसे शोकमोहनीयकर्म कहते हैं। ५-जिस कर्म के उदय से सनिमित्त अथवा अनिमित्त संकल्पमात्र से भयभीत होना भयमोहनीयकर्म कहलाता है । ६-जिस कर्म के उदय से शुभ या अशुभ वस्तु के सम्बन्ध में जुगुप्सा-ग्लानिभाव हो, घृणा हो उसे जुगुप्सामोहनीयकर्म' कहते हैं। १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में जुगुप्सामोहनीय का लक्षण इस प्रकार बताया है जिसके उदय से जीव अपने दोष छिपाये और पर के दोष प्रगट करे--यदुदयादात्मीय दोषस्य संवरणं परदोषस्य धारणं सा जुगुप्सा। --दि. कर्मप्रकृति पृ. ३३ २ इन हास्यादिषट्क के लक्षणों में सर्वत्र सनिमित्त-कारण मिलने और अनिमित्त-बिना कारण की विवक्षा कर लेनी चाहिए । सनिमित्त में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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