________________
प्राक्कथन
यह अधिकार, जैसा कि नाम से स्पष्ट है, कर्म - सिद्धान्त विवेचना से संबन्ध रखता है । इस अधिकार के पूर्व योगोपयोगमार्गणा और बंधक इन दो अधिकारों का वर्णन किया जा चुका है । जिनसे यह ज्ञात हो जाता है कि जो उपयोगनिष्ठ हैं, वे तो कभी भी बंधक होने की योग्यता वाले नहीं होते हैं, लेकिन जो जीव उपयोगवान होने के साथ अभी योग से संबद्ध हैं, वे जीव अवश्य बंध करते रहेंगे । अतः योगोपयोगयुक्त जीवों द्वारा जो बंधयोग्य है, इसका विवेचन प्रस्तुत अधिकार में किया गया है । बंधयोग्य है कर्म, इसलिये यहाँ कर्म के वारे में कुछ प्रकाश डालते हैं ।
संसारस्थ प्राणियों में जो और जैसी विषमतायें व विचित्रतायें दिखती हैं, उन सबका कारण उन जीवों के मूल स्वभाव / स्वरूप से भिन्न विजातीय पदार्थ का संयोग है । जिसके लिये दर्शनशास्त्र में कर्म शब्द का प्रयोग किया है । इस कर्म के कारण ही संसार के चराचर प्राणियों में विचित्रतायें देखी जाती हैं । इस सिद्धान्त को सभी आत्मवादी दर्शनों ने एकमत से स्वीकार किया है । इस में किसी भी प्रकार से किन्तु, परन्तु के लिये अवकाश नहीं है । अनात्मवादी बौद्धदर्शन का भी यही अभिमत है । ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी दार्शनिक भी इसमें प्रायः सहमत हैं ।
इस प्रकार की एकमतता होने पर भी कर्म के स्वरूप और उसके फलदान के संबन्ध में मतभिन्नतायें हैं । सामान्य तौर पर तो जो कुछ भी किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं । जैसे कि खाना-पीना - चलनाफिरना इत्यादि । साधारणतया परलोकवादी दार्शनिकों का अभिमत
Jain Education International
www.jainelibrary.org
!
For Private & Personal Use Only