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________________ १५८ पंचसंग्रह : ३ आहारक-अंगोपांग का बंध नहीं करता है। इसीलिए ये सभी ग्यारह प्रकृतियां स्वानुदयबंधिनी कहलाती हैं। स्वोदयबंधिनी प्रकृतियां इस प्रकार हैं 'धुवोदयाणं' अर्थात् ध्र वोदया प्रकृतियां स्वोदयबंधिनी हैं। जिनके नाम हैं-ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अन्तरायपंचक, मिथ्यात्वमोहनीय, निर्माण, तैजस, कार्मण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलधु और वर्णचतुष्क । इन सभी सत्ताईस प्रकृतियों का उदय होने पर ही बंध होता है । क्योंकि ये सभी प्रकृतियां ध्र वोदया हैं और ध्र वोदया होने से उनका सदैव उदय होता है। पूर्वोक्त ग्यारह और सत्ताईस प्रकृतियों से शेष रही निद्रापंचक, जातिपंचक, संस्थानषटक, संहननषटक, सोलह कषाय, नव नोकषाय, पराघात, उपघात, आतप, उद्योत, उच्छ वास, साता-असातावेदनीय, उच्चगोत्र, नीचगोत्र, मनुष्यत्रिक, तिर्यंचत्रिक, औदारिकद्विक, विहायोगतिद्विक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, सुस्वर, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, दुःस्वर, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति रूप बयासी प्रकृतियां स्वोदयानुदयबंधिनी हैं। क्योंकि ये सभी प्रकतियां मनुष्य, तिर्यंच को उदय हो अथवा न हो तब बंधती हैं। इसीलिए इन प्रकृतियों को स्वोदयानुदयबंधिनी कहते हैं। १ यहां मनुष्य, तिर्यंच के उदय हो या न हो तब बंधती हैं-ऐसा कहने का कारण यह है कि उक्त प्रकृतियों में वे प्रकृतियां हैं जिनको प्राय: मनुष्य तिर्यंच बांधते है। देव, नारक भी उक्त प्रकृतियों में से उनको जिनका उदय संभव हो सकता है, उनका उदय हो या न हो, लेकिन उक्त प्रकृतियों में से स्वयोग्य प्रकृतियां बांधते हैं । २ गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ४०२, ४०३ में इसी प्रकार से अनुदय, उदय और उभयबंधिनी प्रकृतियों को बतलाया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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