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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६
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दयकाल में) तब बंध होता है और ध्र वोदया प्रकृतियों का अपना उदय होने पर बंध होता है। विशेषार्थ-गाथा में स्वानुदयबांधिनी, स्वोदयबंधिनी और उभयबंधिनी प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं । इन तीन प्रकार की प्रकृतियों में से स्वानुदयबंधिनी प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं
'देवनिरयाउ' इत्यादि अर्थात् देवायु व नरकायु, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियशरीर और वैक्रिय-अंगोपांग रूप वैक्रियषटक, आहार कशरीर, आहारक-अगोपांग रूप आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम इन ग्यारह प्रकृतियों का बंध जब इनका अपना उदय न हो उस समय होता है। इसी कारण से ग्यारह प्रकृतियां अनुदयबंधिनी प्रकृतियां कहलाती हैं।
उक्त ग्यारह प्रकृतियों को अनुदयबधिनी प्रकृति मानने का कारण यह है कि देवत्रिक का उदय देवगति में और नरकत्रिक का उदय नरकगति में और वैक्रियद्विक का उदय दोनों गतियों में होता है। लेकिन देव और नारक भवस्वभाव से ही इन प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। तीर्थकरनामकर्म का उदय केवलज्ञान प्राप्त होने पर होता है, परन्तु उस समय इस प्रकृति का बांध नहीं होता है। क्योंकि अपूर्वकरणगुणस्थान में ही इसका बांधविच्छेद हो जाता है तथा आहारकशरीर करने में प्रवृत्त जीव लब्धिप्रयोग के कार्य में व्यग्र होने से प्रमत्त हो जाता है, जिससे तथा उसके बाद के समय में तथाप्रकार की शुद्धि का अभाव होने से मन्द संयमस्थानवर्ती होने से आहारकशरीर और
१ वैक्रियशरीर और वैक्रिय-अंगोपांग अपना उदय न हो तब बंध होता है,
ऐसा कथन भवप्रत्ययिक की विवक्षा से किया गया प्रतीत होता है । क्योंकि वैक्रियशरीरी मनुष्य, तिर्यंच देव-प्रायोग्य या नरक-प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध करते हुए वैक्रियद्विक को बांधते हैं ।
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