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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५५
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दय से, य-और, बंधउक्कोसा-बंधोत्कृष्टा, उदयाणुदयवईओ-उदयवती और अनुदय वती, तितितिच उदहा-तीन, तीन, तीन, चार और दो प्रकार की, उ-और, सव्वाओ-सभी ।
गाथार्थ--अनुदयबंधिनी, उदयबंधिनी और उभयबंधिनी, समक, क्रम और उत्क्रम व्यवच्छिद्यमान बंधोदया, सांतर, उभय और निरन्तर बंधिनी, उदयसंक्रमोत्कृष्टा तथा अनुदयसंक्रमो. त्कृष्टा, उदयबंधोत्कृष्टा और अनुदयबंधोत्कृष्टा, उदयवती और अनुदयवती, इस प्रकार से सभी प्रकृतियां अनुक्रम से तीन, तीन, तीन, चार और दो प्रकार की हैं।
विशेषार्थ-- उक्त दो गाथाओं में दूसरे प्रकार से किये गये प्रकृतियों के वर्गीकरण की संज्ञाओं को बताया है। उक्त संज्ञाओं के नाम और लक्षण इस प्रकार हैं
१बंध की अपेक्षा कर्म प्रकृतियां तीन प्रकार की हैं- स्वानुदयबंधिनी, स्वोदयबंधिनी और उभयांधिनी । अपने अनुदयकाल में जिन प्रकृतियों का बंध हो, वे प्रकृतियां स्वानुदयबंधिनी कहलाती हैं। अपने उदय काल में ही जिनका बबंध हो उन्हें स्वोदयबंधिनी और अपने उदय होने या न होने पर भी जिन प्रकृतियों का बंध हो उन्हें उभयबंधिनी कहते हैं।
२ विच्छेद की अपेक्षा प्रकृतियां तीन प्रकार की हैं-समकव्यव. च्छिद्यमान बंधोदया, क्रमव्यवच्छिद्यमान बंधोदया और उत्क्रमव्यवच्छिमान बंधोदया। इनमें से जिन प्रकृतियों का बंध और उदय एक साथ विच्छिन्न होता है उनको समकव्यवच्छिद्यमान बंधोदया तथा जिन प्रकृतियों का पहले बंध और पश्चात् उदय विच्छेद होता है, उनको क्रमव्यवच्छिद्यमान बंधोदया और पहले उदय और बाद में बंध इस प्रकार उत्क्रम से जिनके बंध और उदय का विच्छेद होता है, उन्हें उत्क्रमव्यवच्छिद्यमान बंधोदया प्रकृति कहते हैं । .१ इन तीनों प्रकारों को गाथा में प्रस्तुत 'उभबंधउदयवोच्छेया' पद द्वारा
__ ग्रहण किया गया है।
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