SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ पंचसंग्रह: ३ वो - अपूर्वकरण गुणस्थान वाला, सुभगाईणं सुभगादि का, मिच्छोमिथ्यादृष्टि, किलिट्ठओ- संक्लिष्ट, एगठाणि-- एकस्थानक, रमं - रस । - गाथार्थ - सूक्ष्मसप रायगुणस्थानवर्ती जीव केवलद्विक का, हास्यादि का अपूर्वकरणगुणस्थान वाला और संक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि सुभगादि का एकस्थानक रस क्यों नहीं बांधता है ? विशेषार्थ - गाथा में जिज्ञासु ने कतिपय प्रकृतियों के रसबंध - प्रकार सम्बन्धी प्रश्न प्रस्तुत किये हैं । उनमें से पहला प्रश्न यह है 'केवल दुगस्स सुहमो' अर्थात् जैसे श्रेणि पर आरूढ़ जीव नौवें अनिवृत्तिबादर संप रायगुणस्थान के संख्यात भागों के बीतने के पश्चात् अति विशुद्ध परिणाम के योग से मतिज्ञानावरणादि अशुभ प्रकृतियों के एकस्थानक रस का बंध करता है, उसी प्रकार क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ जीव सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान के अन्त या उपान्त्यादि समय में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम के योग से केवलद्विक - केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण के एकस्थानक रस का बंध क्यों नहीं करता है ? क्योंकि केवलद्विक अशुभ प्रकृतियां हैं और उनके बंधकों में क्षपकश्रेणि पर आरोहण करने वालों में सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान वाला जीव अत्यन्त विशुद्ध परिणामी है । इसलिए मतिज्ञानावरणादि अशुभ प्रकृतियों की तरह उसे केवलद्विक आवरण का भी एकस्थानक रसबंध होना सम्भव है । तो फिर उसे एकस्थानक रसबंधक क्यों नहीं कहा ? किन्तु यह बताया कि अल्पातिअल्प मात्रा में भी द्विस्थानक रस बंधता है । दूसरा प्रश्न यह है 'हासाइस कह न कुणइ अपुव्वो' अर्थात् हास्य, रति, भय और जुगुप्सा ये पाप प्रकृतियां हैं और इनके सबसे अल्प- अल्पतम रसबंधकों में विशुद्धि के प्रकर्ष को प्राप्त अपूर्वकरणगुणस्थानवर्ती जीव हैं। अतः उनको एकस्थानक रसबंध क्यों नहीं होता है ? इनके बंधकों में वे ही अति विशुद्ध अध्यवसाय वाले हैं। क्योंकि अशुभ प्रकृतियों का जघन्यतम रसबंध विशुद्ध अध्यवसायों से होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy