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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५१
विशेषार्थ - कर्मों का कर्ता और भोक्ता संसारी जीव है और उदयकाल प्राप्त होने पर उनका विपाकोदय होता है । इस सिद्धान्त का आधार लेकर जिज्ञासु प्रश्न पूछता है
ऐसी कौन सी प्रकृतियां हैं कि जो जीव और काल रूप हेतु के आश्रय से उदय में नहीं आती हैं - 'उदयं काओ न जंति पगईओ' ? अर्थात् सभी प्रकृतियां जीव और काल रूप हेतु के आश्रय से उदय में आती हैं। क्योंकि जीव और काल के बिना उदय असम्भव ही है । इसलिये सभी प्रकृतियों को जीवविपाकी ही मानना चाहिये ।
ग्रन्थकार आचार्य इसका समाधान करते हैं
'एवमिण' ऐसा ही है, अर्थात् सामान्यहेतु की अपेक्षा तो जो कहा गया है, वैसा ही है । यानी जीव और काल के आश्रय से सभी प्रकृतियों का उदय होने से वे सब जीवविपाकी ही हैं परन्तु असाधारण - विशेष हेतु की अपेक्षा ऐसा नहीं - 'विसेसय नत्थि' । क्योंकि जीव अथवा काल सभी प्रकृतियों के उदय के प्रति साधारण हेतु हैं । अतः उनकी अपेक्षा तो सभी प्रकृतियां जीवविपाकी ही हैं परन्तु कितनी ही प्रकृतियों के उदय के लिए क्षेत्रादि भी असाधारण कारण हैं । जिससे उनकी अपेक्षा क्षेत्रविपाकी आदि का व्यवहार होता है और ऐसे व्यव - हार में किसी प्रकार का दोष नहीं है ।
इस प्रकार से हेतुविपाकी प्रकृतियों के विषय में विशेष वक्तव्य जानना चाहिये | अब रसविपाकित्व सम्बन्धी विवेचन करते हैं । रसविपाकित्व विषयक प्रश्नोत्तर
केवलदुगस्स सुमो हासाइसु कह न कुणइ अपुव्वो । सुभगाईणं
मिच्छो किलिओ एगठाणिरसं ॥ ५१ ॥
शब्दार्थ - केवलदुगस्स - केवलद्विक का, सुहमो- सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती, हा साइसु — हास्यादिक का, कह — क्यों, न- नहीं, कुणइ — करता है,
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