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बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६
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इस कथन से यह सिद्ध हुआ कि न तो भवविपाकी प्रकृतियां जीवविपाकी हो सकती हैं और न जीवविपाकी प्रकृतियां भवविपाकी होती हैं । किन्तु उन-उनकी मर्यादा के अनुसार जीव यथायोग्य रीति से उन प्रकृतियों का विपाक वेदन करता है ।
इस प्रकार से भवविपाकी प्रकृतियों सम्बन्धी जिज्ञासु के प्रश्न का समाधान करने के पश्चात् अब क्षेत्रविपाक का आधार लेकर जिज्ञासु द्वारा प्रस्तुत प्रश्न का समाधान करते हैं ।
क्षेत्रविपाकित्वविषयक समाधान
अणुपुव्वीणं उदओ किं संकमणेण नत्थि संतेवि । जह खेत्तणो ताण न तह अन्नाण सविवागो ॥ ४६ ॥
शब्दार्थ -- अणु पुग्योणं- आनुपूवियों का, उदओ — उदय, कि- क्या, संकमणेण - संक्रमण द्वारा, नत्थि नहीं होता है, सते - होता है, वि-भी जह-यथा, खेत्त हे उणो - क्षेत्रहेतुक क्षेत्रनिमित्तक, ताण-उनका, न नहीं तह — तथा, अन्नाण – अन्य प्रकृतियों का, सविवागो - स्वविपाक |
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गाथार्थ - क्या आनुपूर्वियों का उदय संक्रम द्वारा नहीं होता है ? होता है - संक्रम द्वारा उदय होता है । परन्तु जिस प्रकार से उनका विपाक क्षेत्रहेतुक है उसी तरह से अन्य प्रकृतियों का नहीं है, इसलिये आनुपूर्वी प्रकृतियां क्षेत्रविपाकी हैं।
विशेषार्थ - गाथा में आनुपूर्वी नामकर्म को क्षेत्रविपाकी ही मानने - के कारण को स्पष्ट किया है ।
जिज्ञासु प्रश्न पूछता है कि गति और आनुपूर्वियों में संक्रम की समानता है । अतः गति की तरह आनुपूवियों को भी जीवविपाकी मानना चाहिये | क्योंकि गतिनामकर्म का अपने-अपने भव के सिवाय अन्य भव में भी संक्रम द्वारा उदय होता है और इसलिये अपने भव के साथ व्यभिचारी होने के कारण उनको भवविपाकी न मानकर जीव
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