________________
बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४८
१४१
नहीं हैं। उनका विपाक पुद्गलों के संसर्ग से भी होता है और संसर्ग हुए बिना भी होता है । इसलिये पुद्गलों के साथ व्यभिचार होने से रति -अरति मोहनीय का पुद्गलविपाकित्व सिद्ध नहीं होता है, किन्तु वे दोनों जीवविपाका ही हैं ।
इसी प्रकार से क्रोधादि के सम्बन्ध में भी पूर्वपक्ष की युक्तियों का निराकरण करके उनका जीवविपाकित्व सिद्ध करना चाहिये - ' एवं कोहाइयाणवि । जैसे कि किसी के तिरस्कार करने वाले शब्दों को सुनकर क्रोध का उदय होता है और शब्द पौद्गलिक हैं । इसलिये यदि कोई कहे कि क्रोध का उदय भी पुद्गलों के आश्रय से होता है, अतः वह पुद्गलविपाकी है । तो प्रति प्रश्न के रूप में उसका उत्तर देते हुए पूछो कि स्मरणादि द्वारा पुद्गलों का सम्बन्ध हुए बिना भी क्या उनका विपाक नहीं देखा जाता है ? अतः पुद्गलों के साथ व्यभिचार आने से रति, अरति की तरह क्रोधादिक को भी जीवविपाकी जानना चाहिये |
इस प्रकार से जीवविपाकी प्रकृतियों को पुद्गलविपाकी नहीं मानने के कारण को स्पष्ट करने के बाद अब यह स्पष्ट करते हैं कि जीवविपाकी प्रकृतियां भवविपाकी भी क्यों नहीं हैं ?
भवविपाकित्वविषयक समाधान
आउव्व भवविवागा गई न आउस्स परभवे जम्हा । नो सव्वहा वि उदओ गईण पुण संक्रमेणत्थि ॥ ४८ ॥
--
शब्दार्थ - आउव्व – आयु की तरह, भवविद्यागा-भवविपाकी, गई - गतियां, न- नहीं, आउस्स- आयु का, परभवे - परभव में, जम्हा - इस नो-नहीं, सव्वहा - पूर्णरूप से, किसी भी प्रकार से, वि--भी, उदओ - उदय, गईन - गतियों का, पुण-पुनः, संकमेणत्थि - संक्रम से होता है ।
कारण,
---
-
गाथार्थ - आयु की तरह गतियां भवविपाकी नहीं हैं। आयु का परभव में किसी प्रकार से उदय संभव नहीं है, किन्तु गतियों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org