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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४५
१३७ विपाकापेक्षा प्रकृतियों को व्याख्या
दुविहा विवागओ पुण हेउविवागाउ रसविवागाउ । एक्केक्का वि य चउहा जओ च सद्दो विगप्पेणं ॥४॥
शब्दार्थ-दुविहा-दो प्रकार की, विवागओ-विपाकापेक्षा, पुण-पुनः, हेउविवागाउ-हेतुविपाका, रसविवागाउ-रसविपाका, एक्केक्का-प्रत्येक, वि-भी, य-और, चउहा-चार प्रकार की, जओ-क्योंकि, च सद्दोच शब्द के, विगप्पेणं-विकल्प से।
गाथार्थ-विपाकापेक्षा प्रकृतियां दो प्रकार की हैं--हेतुविपाका और रसविपाका और ये भी प्रत्येक चार प्रकार की हैं। च शब्द के विकल्प से प्रत्येक के इन चार प्रकारों का ग्रहण समझना चाहिये। विशेषार्थ-अनुभव करने को विपाक कहते हैं। संसारी जीव को कर्म अपने-अपने स्वभाव का अनुभव अपनी-अपनी शक्ति के अनुरूप तथा किसी न किसी निमित्त के माध्यम से कराते हैं । इन्हीं दोनों दृष्टियों से विपाकापेक्षा कर्मों के दो प्रकार हो जाते हैं । इन्हीं का ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में उल्लेख किया है_ 'दुविहा विवागओ' अर्थात् विपाकापेक्षा प्रकृतियों के दो प्रकार हैं-'हेउविवागाउ रसविवागाउ'-हेतुविपाका और रसविपाका । उनमें से हेतु की प्रधानता से यानी पुद्गलादि रूप हेतु के आश्रय से जिन प्रकृतियों का विपाक-फलानुभव होता है, वे प्रकृतियां हेतुविपाका
और रस की मुख्यता यानी रस के आश्रय से निर्दिश्यमान विपाक जिस प्रकृति का हो वे प्रकृतियां रसविपाका कहलाती हैं। - इन पूर्वोक्त दोनों प्रकार की प्रकृतियों में से पुनः एक-एक-प्रत्येक के भी चार-चार प्रकार हैं-'एक्केक्का वि य चउहा' । उनमें से पुद्गल, क्षेत्र, भव और जीव रूप हेतु के भेद से हेतुविपाका प्रकृतियों के चार
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