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पंचसंग्रह : ३ स्वजातीय प्रकृति के बंध और उदय दोनों को रोककर बध और उदय को प्राप्त होने के कारण बंध और उदय दोनों दृष्टियों से परावर्तमान हैं।
सम्यक्त्व और सम्यगमिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां भी परावर्तमान हैं । लेकिन उदयापेक्षा किन्तु बंध अथवा बंधोदयापेक्षा नहीं। क्योंकि इनका बंध होता ही नहीं है। इसलिये उक्त इकानवै प्रकृतियों के साथ इन दो प्रकृतियों को मिलाने पर कुल तेरानवै प्रकृतियां परावर्तमान जानना चाहिए।
प्रकृतियों की परावर्तमानता के तीन रूप हैं-बंध-बंध की अपेक्षा, उदय- उदय की अपेक्षा और बंध-उदय (उभय) की अपेक्षा । कुछ प्रकृतियां ऐसी हैं जो अन्य के बंध को रोककर स्वयं बंधने लगती हैं। कुछ प्रकृतियां ऐसी हैं, जिनके उदयकाल में अन्य स्वजातीय प्रकृतियों का उदय रुक जाता है और कुछ दूसरी स्वजातीय पर प्रकृतियों को रोककर उदय में आती हैं। इन तीनों प्रकार की प्रकृतियों का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है।
परावर्तमान प्रकृतियों से विपरीत प्रकृतियां अपरावर्तमान कहलाती हैं । ऐसी प्रकृतियां उनतीस हैं, यथा--ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, पराघात, तीर्थंकर, उच्छ्वास, मिथ्यात्व, भय, जूगुप्सा और नामकर्म की. ध्र वबंधिनी नवक। ये उनतीस प्रकृतियां बंध और उदय के आश्रय से अपरावर्तमान हैं। क्योंकि इन प्रकृतियों का बंध या उदय बंधनेवाली या वेद्यमान शेष प्रकृतियों के द्वारा घात नहीं किया जा सकता है । अन्य प्रकृतियों के बंध और उदय को रोके बिना इनका बंध, उदय होता है। ___ इस प्रकार से परावर्तमान, अपरावर्तमान पद का अर्थ जानना चाहिए । अब पूर्व में बताये गये विपाकापेक्षा प्रकृतियों के चार प्रकारों की व्याख्या करते हैं।
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