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________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २५ ६३ दूध की तरह मिश्रित होना--एकाकार हो जाना अथवा तत्तत् प्रकार के द्रव्य, क्षेत्र, काल और अध्यवसाय की अपेक्षा से उस-उस प्रकार से संक्रमादि रूप में जो परिणमन वह पारिणामिकभाव कहलाता है। __ औदयिकभाव-कर्म के उदय से होने वाले भाव को औदयिकभाव कहते हैं और कर्मप्रकृतियों के शुभाशुभ विपाक का अनुभव करना. उदय है। उक्त पांचों भावों की व्याख्या करने के बाद अब प्रत्येक कर्म में प्राप्त भावों को बतलाते हैं_ 'मोहस्सेव उवसमो' अर्थात् ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों में से मोहनीयकर्म में ही उपशम भाव प्राप्त होता है, और दूसरे कर्मों में नहीं । क्योंकि मोहनीयकर्म का सर्वथा उपशम होने से जैसे उपशमभाव का सम्यक्त्व और उपशमभाव रूप यथाख्यातचारित्र होता है, उसी प्रकार से ज्ञानावरणादि कर्मों का उपशम होने से तथारूप केवलज्ञान आदि गुण उत्पन्न ही नहीं होते हैं। उपशम के दो प्रकार हैं-देशोपशम और सर्वोपशम । उनमें से यहाँ उपशम शब्द से सर्वोपशम की विवक्षा समझना चाहिये, देशोपशम की नहीं। क्योंकि देशोपशम तो आठों कर्मों का होता है, जो कार्यकारी नहीं है। ___ खाओवसमो चउण्ह घाईणं' अर्थात् क्षायोपशमिकभाव चारों घातिकर्मों-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-में पाया जाता है, शेष अघातिकर्मों में नहीं। क्योंकि घातिकर्म आत्मा के ज्ञानादि गुणों का घात करते हैं, अतः उनका यथायोग्य रीति से सर्वोपशम या क्षयोपशम होने पर ज्ञानादि गुण प्रगट होते हैं । किन्तु अघातिकर्म आत्मा के किसी भी गुण का घात नहीं करते हैं, जिससे उनका सर्वोपशम अथवा क्षयोपशम भी नहीं होता है। तथा घातिकर्मों में भी केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण के रसोदय को रोकने का अभाव होने से, इन दो प्रकृतियों के सिवाय शेष घातिप्रकृतियों का समझना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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