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बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३
नामकर्म की पूर्व में जो तेरानवे प्रकृतियां बतलाई हैं, उनका बंध, शुभाशुभत्व आदि की अपेक्षा वर्गीकरण इस प्रकार करना चाहिये
बंध एवं उदय की अपेक्षा तेरानवें प्रकृतियों में से वर्णादि सोलह, बंधनपंचक और संघातनपंचक इन छब्बीस प्रकृतियों को कम करने पर सड़सठ (६७) प्रकृतियों वाला है तथा शुभाशुभत्व की अपेक्षा वर्णादिचतुष्क के दो प्रकार हैं- शुभ और अशुभ । जिससे शुभ या अशुभ किन्हीं भी प्रकृतियों की संख्या में वर्णादिचतुष्क को जोड़ा जाता है तब सभी शुभ और अशुभ प्रकृतियां मिलकर (६७ +४=७१) होती हैं और जब सत्ता का विचार किया जाता है तब वर्णादि बीस बंधनपंचक और संघातनपंचक इन सभी प्रकृतियों का ग्रहण होने से तेरानवै प्रकृतियां कही जाती हैं। इस प्रकार संख्याभेद की अपेक्षा नामकर्म अनेक प्रकार का है ।
वर्णादिचतुष्क को शुभ और अशुभ दोनों वर्गों में ग्रहण करने पर जिज्ञासु यदि यह कहे कि जिस रूप में वर्णादिचतुष्क पुण्य हों, उसी रूप में पाप भी माने जायें तो यह कथन योग्य नहीं है । क्योंकि ऐसा मानने में प्रत्यक्ष विरोध है, तो इसका समाधान यह है कि यह सामान्य से शुभाशुभत्व का संकेत किया है । लेकिन उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा उनमें से किन्हें शुभ और किन्हें अशुभ मानना चाहिये, उनके नाम इस प्रकार हैं
नील कसीणं दुगंध तित्त कडुयं गुरुं खरं रुक्खं । सीयं च असुमनवगं एगारसगं सुभं सेसं ॥ १३ ॥
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शब्दार्थ -- नील कसीण- - नील और कृष्ण, दुगधं - दुर्गन्ध, तित्त - तिक्त, कइयं कटुक, गुरु- गुरु, खरं- कर्कश, रुक्खं – रून, सीयं -- शीत, चऔर, असुभनवगं-अशुभ नवक, एगारसगं - ग्यारह, सुभं - शुभ, सेस - शेष । गाथार्थ - (वर्णचतुष्क की पूर्वोक्त बीस प्रकृतियों में से ) नील और कृष्ण ये दो वर्ण, दुर्गन्ध, तिक्त और कटु ये दो रस,
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