SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचसंग्रह : ३ कार्मणवर्गणादि नहीं हैं, इसी प्रकार उनके हेतुभूत औदारिक- तैजसनामकर्म आदि भी नहीं हैं, जिससे उस प्रकार की वर्गणाओं को ग्रहण करके रचना हो । परन्तु औदारिकवर्गणा है और उसका हेतुभूत औदारिकामकर्म है । औदारिकादि नामकर्म के उदय से तत्तत् शरीर योग्य वर्गणाओं का ग्रहण और औदारिकादि, संघातननामकर्म के उदय से औदारिकादि शरीर के योग्य रचना होती है और औदारिकादि बंधन - नामकर्म के उदय से उनका औदारिक आदि शरीरों के साथ सम्बन्ध होता है। यानी आत्मा जिस शरीरनामकर्म के उदय से जिन पुद्गलों को ग्रहण करती है, उन पुद्गलों की रचना उस शरीर का अनुसरण करके ही होती है, फिर चाहे सम्बन्ध किसी के भी साथ हो । ' इसलिए संघातनामकर्म तो पांच प्रकार का ही है और अलग-अलग शरीरों के साथ सम्बन्ध होने से बंधन के पन्द्रह भेद हैं । ६४ संघातननामकर्म के पांच भेदों के नाम इस प्रकार हैं - १. औदारिकसंघातन, २. वैक्रियसंघातन, ३. आहारकसंघातन, ४. तैजससंघातन और ५. कार्मणसंघातन । औदारिकशरीर की रचना के अनुकूल औदारिक पुद्गलों की संहति - रचना होने में निमित्तभूत जो कर्म, उसे औदारिकसंघातननामकर्म कहते हैं । इसी प्रकार शेष चार संघातननामकर्मों के अर्थ समझ लेना चाहिये । उक्त कथन का आशय यह है कि अमुक प्रमाण में ही लम्बाई - मोटाई आदि निश्चित प्रमाणवाली औदारिकादि शरीर की रचना के लिये समूह विशेष की - औदारिकादि शरीर का अनुसरण करने वाली रचना की आवश्यकता है और उससे ही शरीर का तारतम्य होता है । इसलिये समूहविशेष के कारणरूप में संघातननामकर्म अवश्य मानना चाहिये । यानी औदारिकादि नामकर्म के उदय से जो औदारिकादि पुद्गलों का ग्रहण किया जाता है, उनकी नियत प्रमाण वाली रचना होने में संघात नामक मं कारण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy