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________________ बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २०-२१ ५३ इस प्रकार से नारक और देवों का प्रमाण बतलाने के बाद उत्तरवैक्रियशरीर वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण बतलाते हैं । उत्तरवं क्रियशरीरी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का प्रमाण अंगुलमूला संखियभागप्पमिया उ होंति सेढीओ । उत्तरविउध्वियाणं तिरियाण य सन्निपज्जाणं ||२०|| शब्दार्थ - अंगुलमूलासंखियभागप्पमिया - अंगुलमात्र आकाशप्रदेश मूल के असंख्यातवें भागगत प्रदेशराशि प्रमाण, होंति - हैं, सेडीओ-श्रेणियाँ, उत्तरविउब्वियाणं - उत्तरवै क्रियशरीर वाले, तिरियाण - तिर्यंचों की, य --- और, सन्निपज्जाणं संज्ञि पर्याप्तकों की । के गाथार्थ - अंगुलमात्र आकाशप्रदेश के मूल के असंख्यातवें भागगत प्रदेशराशि प्रमाण सूचिश्रेणियाँ उत्तरवेक्रियशरीर वाले संज्ञी पर्याप्त तिर्यंचों की संख्या है । विशेषार्थ - एक अंगुल प्रमाण क्षेत्रवर्ती आकाशप्रदेश का जो प्रथम वर्गमूल उसके असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हों, उतनी उत्तरर्वक्रियलब्धिसम्पन्न पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की संख्या जानना चाहिये ।' उत्तरवै क्रियशरीर- लब्धिसम्पन्न पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंख्यात द्वीप - समुद्रों में रहने वाले मत्स्य और हंस आदि जीव जानना चाहिये । इस प्रकार से तीन गति के संज्ञी जीवों की संख्या बतलाने के बाद अब मनुष्यों का प्रमाण बतलाते हैं । मनुष्यों का प्रमाण rastery मणुया सेढी ख्वाहिया अवहरति । अंगुलमूलप्पसह ॥२१॥ तमूला हि शब्दार्थ — उक्कोसपए - उत्कृष्टपद में, मणुया— मनुष्य, सेढी— श्र ेणि, रूवाहिया - एक रुपाधिक, अवहरति - अपहार हो सकता है, तइयमूलाहएहि - १ एतद्विषयक प्रज्ञापनासूत्र का पाठ परिशिष्ट में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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