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पंचसंग्रह
गुणियाइं - अपने - अपने मूल से गुणा करने पर, इयराणं – दूसरों के ( भवनपति, सौधर्म कल्प के देवों के ) ।
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गावार्थ - अथवा अंगुलप्रमाण क्षेत्रवर्ती प्रदेशों का अपने-अपने मूल के साथ गुणा करने पर रत्नप्रभा के नारकों की सूचिश्रेणि का प्रमाण प्राप्त होता है और प्रथम एवं द्वितीय पद का अपनेअपने मूल से गुणा करने पर प्राप्त सूचिश्रेणियाँ क्रमशः दूसरोंभवनपति और सौधर्मकल्प के देवों के प्रमाणरूप में समझना चाहिये ।
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विशेषार्थ - यद्यपि पूर्व की गाथा में रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों, भवनपति और सौधर्मकल्प के देवों के प्रमाण को जानने के सूत्र का उल्लेख कर दिया है । लेकिन इस गाथा में पुनः उन-उन के प्रमाण को जानने की दूसरी विधि का उल्लेख किया है ।
पूर्व की गाथा में अंगुलमात्र क्षेत्रवर्ती प्रदेशराशि की दो सौ छप्पन की कल्पना की थी । किन्तु यहाँ उस प्रकार नहीं करके वास्तव में जितनी संख्या होती है, उतनी की विवक्षा की है । वह इस प्रकार समझना चाहिये - एक अंगुलप्रमाण सुचिश्रेणि में रहे हुए आकाशप्रदेशों का अपने मूल के साथ गुणाकार करने पर जो संख्या प्राप्त हो, उतनी सूचिश्रेणियों में रहे हुए आकाशप्रदेश प्रमाण रत्नप्रभापृथ्वी के नारक हैं ।
अंगुलप्रमाण क्षेत्र में रहे हुए आकाशप्रदेश के पहले मूल का अपने मूल के साथ गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त होती है, उतनी सूचिश्रेणियाँ भवनपति देवों का प्रमाण निर्णय करने के लिये जानना चाहिये । अर्थात् इतनी सूचिश्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हों, उतने भवनपति देव जानना चाहिये ।
अंगुलप्रमाण क्षेत्र में रहे हुए आकाशप्रदेशों के दूसरे मूल का अपने मूल के साथ गुणा करने पर जो प्रदेशराशि प्राप्त हो, उतनी सूचिश्रेणियों में रहे हुए आकाशप्रदेश प्रमाण सौधर्म देवलोक के देव हैं ।
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