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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११ पृथ्वीकाय के जीवों से) पर्याप्त बादर जलकाय के जीव असंख्यातगुणे हैं।' तथा
आवलिवग्गो अन्तरावलोय गुणिओ हु बायरा तेऊ। वाऊ य लोगसंखं सेसतिगमसंखिया लोगा ॥११॥
शब्दार्थ--आवलिवग्गो-आवलि के वर्ग को, अन्तरावलीय-अन्तरावलिका से--कुछ न्यून आवलिका से, गुणिओ-गुणा करने पर, हु-ही, बायरा तेऊ--बादर तेजस्काय के जीवों का प्रमाण, वाऊ-वायुकाय के जीव, य-और, लोगसंखं-लोक के संख्यातवें भाग में, सेसतिगं-शेष तीन, असंखिया-असंख्यातवें भाग, लोगा-लोक के ।
गाथार्थ--आवलिका के वर्ग को अन्तरावलिका के समयों द्वारा गुणा करने पर जो प्रमाण आता है, उतने बादर तेजस्काय के जीव हैं और लोक के संख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने ही बादर वायुकाय के जीव जानना चाहिये तथा शेष तीन असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं।
विशेषार्थ-प्रत्येक बादर वनस्पति आदि तीन काय के जीवों की संख्या का प्रमाण बतलाने के बाद अब इस गाथा में बादर तेजस् और वायु काय के जीवों का प्रमाण और इन पांचों स्थावर जीवों के भेदों
१ प्रत्येक बनस्पतिकाय के जीव अल्प हैं और पृथ्वीकाय के जीवों के असंख्यात
गुणे होने का कारण यह है कि वनस्पतिकाय से पृथ्वीकाय का शरीर सूक्ष्म है और उत्पत्तिस्थान का क्षेत्र विशाल है। वनस्पतिकाय के जीव मात्र रत्नप्रभा के ऊपर के तल में विद्यमान पृथ्वी, नदी, समुद्र और उपवन आदि में उत्पन्न होते हैं और पृथ्वीकायिक जीव तो नरकों के असंख्य योजनप्रमाण लम्बे-चौड़े पृथ्वीपिंडों, देवलोक के बड़े-बड़े विमानों आदि स्थानों पर उत्पन्न होते हैं। उनसे अपकायिक जीवों का शरीर सूक्ष्म और उनका उत्पत्तिस्थान विशाल होने से वे पृथ्वीकायिक जीवों से भी असंख्यातगुणे हैं। क्योंकि ये असंख्यात समुद्रों और घनोदधिपिडों में उत्पन्न होते हैं।
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