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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०
अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत जीव सदैव होते हैं। क्योंकि ये दोनों गणस्थान ध्रव हैं। मात्र किसी समय कम होते हैं और किसी समय अधिक होते हैं। फिर भी दोनों गुणस्थान वाले जीव जघन्य से भी क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भाग में विद्यमान प्रदेशराशि प्रमाण होते हैं और उत्कृष्ट से भी इतने ही हैं । परन्तु असंख्यात के असंख्यात भेद होने से जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग से उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग असंख्यात गुणा बड़ा जानना चाहिये तथा देशविरत से अविरतसम्यग्दृष्टि जघन्य से और उत्कृष्ट से बहत अधिक समझना चाहिये। क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि तो चारों गति में ही होते हैं और देशविरत मात्र मनुष्य और तिर्यंच गति में ही होते हैं।
पूर्वोक्त पांच गुणस्थानों से शेष रहे प्रमत्त आदि प्रत्येक गुणस्थान के जीव निश्चित संख्या वाले ही होते हैं 'सेस संखेज्जा'। क्योंकि ये गुणस्थान सिर्फ मनुष्यगति में ही प्राप्त होते हैं। इनकी निश्चित संख्या का प्रमाण आगे बताया जा रहा है।
इस प्रकार सामान्य से द्रव्यप्रमाण का निर्देश करने के बाद अब विशेष विस्तार से द्रव्यप्रमाण का विवेचन करते हैं । विस्तार से द्रव्य प्रमाण विवेचन
पत्तेयपज्जवणकाइयाउ पयरं हरंति लोगस्स ।
अंगुल-असंखभागेण भाइयं भूदगतणू य ॥१०॥ शब्दार्थ-पत्तेय--प्रत्येक, पज्ज-~-पर्याप्त, वणकाइया-वनस्पतिकायिक, उ-और, पयरं—प्रतर, हरंति-- अपहार करते हैं, लोगस्स-लोक के, अंगुलअसंख-भागेण-अंगुल के असंख्यातवें भाग द्वारा, भाइयं-भाजित, भूदगतणू-- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, य-और । ___ गाथार्थ-पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय, पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय
और जलकाय के जीव अंगुल के असंख्यातवें भाग द्वारा विभाजित लोक सम्बन्धी प्रतर का अपहार करते हैं। विशेषार्थ-पर्याप्त प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय, पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय और पर्याप्त बादर जलकाय के जीव सात राजू प्रमाण
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