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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६ अट्ठाईस, सात पद के इक्कीस सौ छियासी और आठ पद के पैंसठ सौ साठ भंग प्राप्त करना चाहिये। इस प्रकार से सत्पदप्ररूपणा का विचार जानना चाहिये। अब द्रव्यप्रमाण-चौदह जीवस्थानों में से प्रत्येक जीवस्थान की तथा गुणस्थानवर्ती जोवों की संख्या बतलाते हैं। द्रव्यप्रमाण साहारणाण भेया चउरो अणंता असंखया सेसा। मिच्छाणंता चउरो पलियासंखंस सेस संखेज्जा ॥६॥ शब्दार्थ- साहारणाण-- साधारण के, भेया-भेद, चउरो-चारों, अणंता-अनन्त, असंखया-असंख्य, सेसा- शेष भेद, मिच्छा-मिथ्यादृष्टि, गंता-अनन्त, चउरो-चार, पलियासंखंस -पल्योपम के असंख्यातवें भाग, सेस-शेष, संखेज्जा-संख्यात । गाथार्थ-साधारण वनस्पति के चारों भेद अनन्त हैं और शेष भेद असंख्यात हैं। मिश्यादृष्टि अनन्त हैं, उसके बाद के चार गुणस्थान वाले पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण एवं शेष गुणस्थानवर्ती जीव संख्यात हैं । विशेषार्थ--गाथा के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में क्रमशः जोवस्थानों और गुणस्थानों की अपेक्षा जीवों की संख्या का प्रमाण बतलाया है। जीवस्थानों की अपेक्षा जीवों की संख्या का प्रमाण बतलाने के लिये कहा है कि साधारण वनस्पतिकाय के चारों भेद-सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त अनन्त संख्या प्रमाण हैं। क्योंकि ये जीव अनन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं तथा सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त के रूप से चार-चार प्रकार के शेष पृथ्वी, अप, तेज, वायु और पर्याप्तअपर्याप्त प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय तथा पर्याप्त-अपर्याप्त द्वोन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय, कुल अट्ठाईस प्रकार के जीवों की संख्या असंख्यात प्रमाण है । क्योंकि प्रत्येक भेद वाले ये जोव असंख्यात प्रमाण हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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