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________________ बंधक - प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट स्थितिबंध किया, उसके भी कषायस्थान, अनुभागस्थान और योगस्थान पूर्ववत् पूर्ण किये । इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते ज्ञानावरणकर्म की तीस कोडाकोडी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति पूर्ण की । इस तरह जब वह जीव सभी मूल और उत्तर कर्म - प्रकृतियों की स्थिति पूरी कर लेता है, तब उतने काल को भावपरिवर्तन कहते हैं । इन सभी परिवर्तनों में क्रम का ध्यान रखना चाहिए, अक्रम से होने वाली क्रिया की गणना नहीं की जाती है । पंचपरिवर्तनों में अल्पबहुत्व - अतीतकाल में एक जीव के सबसे कम भावपरिवर्तन के बार हैं, भावपरिवर्तनों के बारों से भवपरिवर्तन के बार अनन्तगुणे हैं, कालपरिवर्तन के बार भवपरिवर्तन के बारों से अनन्तगुणे हैं, क्षेत्रपरिवर्तन के बार कालपरिवर्तन के बारों से अनन्तगुणे हैं और पुद्गलपरिवर्तन के बार क्षेत्रपरिवर्तन के बारों से अनन्तगुणे हैं । २१३ पुद्गलपरिवर्तन का काल सबसे कम है । क्षेत्रपरिवर्तन का काल पुद्गल - परिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है, कालपरिवर्तन का काल क्षेत्रपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है, भवपरिवर्तन का काल कालपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है और भावपरिवर्तन का काल भवपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है । इस प्रकार से दिगम्बर साहित्य में पुद्गलपरिवर्तनों का वर्णन किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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