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________________ २१२ पंचसंग्रह : २ पल्य पूरी की। तियंचगति की ही तरह मनुष्यगति में भी अन्तमुहूर्त से लेकर तीन पल्य की आयु समाप्त की, फिर नरकगति की तरह देवगति का काल पूरा किया, किन्तु देवगति में इतनी विशेषता है कि यहाँ इकतीस सागर आयु पूरी करने पर ही भवपरिवर्तन पूरा हो जाता है। क्यों कि ३१ सागर से अधिक आयु वाले देव नियम से सम्यग्दृष्टि होते हैं और वे एक या दो मनुष्य भव धारण करके मोक्ष जाते हैं। ___ इस प्रकार चारों गति की आयु को भोगने में जितना समय लगता है उसे भवपरिवर्तन कहते हैं। भावपरिवर्तन-इस जीव ने मिथ्यात्व के वश प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध के कारणभूत जितने प्रकार के परिणाम या भाव हैं, उन सबका अनुभव करते हुए भावपरिवर्तन रूप संसार में अनेक बार भ्रमण किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कर्मों के एक-एक स्थितिबंध के कारण असंख्यात लोक प्रमाण कषाया ध्यवसायस्थान हैं और एक-एक कषायस्थान के कारण असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसायस्थान हैं। किसी पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीव ने ज्ञानावरणकर्म का अन्तःकोटि-कोटि सागर प्रमाण जघन्य स्थितिबंध किया । उसके उस समय सबसे जघन्य कषायस्थान, सबसे जघन्य अनुभागस्थान तथा सबसे जघन्य योगस्थान था। दूसरे समय में वही स्थितिबंध, वही कषायस्थान और वही अनुभागस्थान रहा किन्तु योगस्थान दूसरे नम्बर का हो गया, इस प्रकार उसी स्थितिबंध, कषायस्थान और अनुभागस्थान के साथ श्रेणी के असंख्यातवें भागप्रमाण समस्त योगस्थानों को पूर्ण किया। योगस्थानों की समाप्ति के बाद स्थितिबंध और कषायस्थान तो वही रहा किन्तु अनुभागस्थान दूसरा बदल गया । उसके भी पूर्ववत् समस्त योगस्थान पूर्ण किये। इस प्रकार अनुभागाध्यवसायस्थानों के समाप्त होने पर उसी स्थितिबंध के साथ दूसरा कषायस्थान हुआ, उसके भी अनुभागस्थान और योगस्थान पहले की तरह समाप्त किये । पुनः तीसरा कषायस्थान हुआ, उसके भी अनुभागस्थान और योगस्थान पूर्ववत् समाप्त किये, इस प्रकार समस्त कषायस्थानों के समाप्त हो जाने पर इस जीव ने एक समय अधिक अन्तःकोडाकोडी सागर प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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