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________________ ( १८ ) गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । -पंचाध्यायी १२८-२६-३० जो जीव संसार में स्थित है उसके रागद्वेष रूप परिणाम होते हैं । परिणामों से कर्म बंधते हैं । कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है, इससे शरीर होता है। शरीर के प्राप्त होने से इन्द्रियां होती हैं। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण होता है । विषयग्रहण से राग और द्वष रूप परिणाम होते हैं। इस प्रकार जो जीव संसार-चक्र में पड़ा है उसकी यह अवस्था होती है । आचार्य समन्तभद्र ने संक्षेप में कर्म के कार्य का संकेत इस प्रकार किया हैकामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः । -आप्तमीमांसा ... जीव की काम-क्रोध आदि रूप विविध अवस्थायें अपने-अपने कर्मबन्ध के अनुरूप होती हैं । इसका कारण यह है कि मुक्त दशा में जीव की जो स्वाभाविक परिणति होती है, उसमें पृथक्-पृथक् निमित्तकारण नहीं, किन्तु संसारी जीव की प्रतिसमय की परिणतियां जुदी-जुदी होती रहती हैं। इसलिए उनके अलगअलग निमित्तकारण माने गये हैं, जो आत्मा के साथ संस्कार रूप में सम्बद्ध होते रहते हैं और तदनुकूल परिणति उत्पन्न करने में सहायता देते हैं। जीव की शुद्धता और अशुद्धता उन निमित्तों के सद्भाव, असद्भाव पर आधारित है। जब तक ये निमित्त एक क्षेत्रावगाह रूप से संश्लिष्ट रहते हैं, तब तक अशुद्धता बनी रहती है और इनका सम्बन्ध छूटते ही जीव शुद्ध दशा को प्राप्त हो जाता है। जैनदर्शन में इन्हीं निमित्तों को कर्म कहा है । पूर्वोक्त संकेतों से कर्म की कार्यमर्यादा ज्ञात हो जाती है कि कर्म के निमित्त से जीव की विविध प्रकार की अवस्थायें होती हैं और जीवों में ऐसी योग्यता आती है, जिससे योग द्वारा यथायोग्य शरीर, वचन और मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें अपनी-अपनी योग्यतानुसार परिणमाते हैं। लेकिन जनसाधारण का यह विचार है कि कर्मोदय से बाह्य सुख-दुःख के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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