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________________ प्राक्कथन यह पंचसंग्रह ग्रन्थ का 'बंधक-प्ररूपणा' नामक अधिकार है। प्रथम योगोपयोगमार्गणा अधिकार से अनन्तरवर्ती होने से इसका क्रम दूसरा है । योगोपयोगमार्गणा के पश्चात् बन्धक-प्ररूपणा इसलिए की है कि जो योग और उपयोग दोनों से सहित हैं, वे ही जीव कर्म के बन्धक हैं। उपयोग जीव का स्वभाव है। जो उपयोगवान हैं, उपयोग में ही अवस्थित हैं, वे जीव कर्म के बन्धक नहीं होते हैं। लेकिन उपयोग के साथ जब तक आत्मा के वीर्य गुण की परिस्पन्दनात्मक रूप शक्ति-योग का सम्बन्ध है, तभी तक जीव कर्म के बन्धक हैं। अथवा यह स्पष्ट करने के लिए की है कि पूर्व में जिन जीवभेदों में योग और उपयोग के विविध भेदों का अन्वेषण किया गया है, वे ही संसारी जीव कर्म के बन्धक हैं, अन्य नहीं। योग और उपयोगवान, जीवों का सम्बन्ध कर्म से है। संसारी जीव कर्म के बन्धक हैं। अतएव प्रासंगिक होने से कर्म की कार्यमर्यादा के बारे में यहाँ कुछ संकेत करते हैं। कर्म का मुख्य और अनिवार्य कार्य जीव को संसार में रोक रखना है । परावर्तन कराते रहना है। परावर्तन संसार का दूसरा नाम है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के भेद से और भव को जोड़ देने से परावर्तन चार या पांच प्रकार का है। कर्म के कारण ही जीव इन परावर्तनों में घूमता-फिरता है । चार गति और चौरासी लाख योनियों में रहे हुए जीवों की जो विविध अवस्थायें होती हैं, उनका मुख्य कारण कर्म है। जब तक जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध है तब तक वह परावर्तन रूप संसार में इस प्रकार से घूमता रहता है जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदीसु गदी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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