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________________ १८२ पंचसंग्रह : २ उक्कोसपए संता मिच्छा तिसु गईसु होतसंखगुणा। तिरिए सणंतगुणिया सन्निसु मणुएसु संखगुणा ॥८१॥ शब्दार्थ-उक्कोसपए--उत्कृष्ट पद में, संता-होते हैं, मिच्छा- मिथ्यादृष्टि जीव, तिसु गईसु-तीनों गतियों में, होंतसंखगुणा-असंख्यातगुणे हैं, तिरिए–तिर्यंचगति में, सणंतगुणिया-वे अनन्तगुणे, सन्निसु- संजी, मणु एसुमनुष्यों में, संखगुणा-संख्यातगुणे । गाथार्थ (तिर्यंच के सिवाय ) तीन गतियों में उत्कृष्ट पद में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणे होते हैं। उनसे तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं और संज्ञी मनुष्य संख्यातगुणे विशेषार्थ-पूर्व में सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त बारह गुणस्थानों सम्बंधी अल्पबहुत्व का निर्देश किया है। अब शेष रहे मिथ्यादृष्टि और अंतिम चौदहवें अयोगिकेवलीगुणस्थान सम्बंधी अल्पबहुत्व को बतलाते हैं। पूर्वोक्त अविरतसम्यग्दृष्टि जीवों से नारक, मनुष्य और देव इन तीन गतियों में उत्कृष्ट पद में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणे हैं और उनसे भी तिर्यंचगति में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव सभी निगोदिया जीवों के मिथ्यात्वी होने से अनन्तगुणे हैं तथा गर्भज मनुष्यों में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाले मनुष्यों से मिथ्यादृष्टि मनुष्य संख्यातगुणे ही हैं। क्योंकि कुल मिलाकर वे संख्या में संख्यात ही हैं तथा भवस्थ अयोगिवली जीव क्षपक तुल्य जानना चाहिये। क्योंकि उनकी संख्या भी अधिक से अधिक शतपृथक्त्व प्रमाण ही होती है और अभवस्थ अयोगिकेवली अविरतसम्यग्दृष्टि जीवों से अनन्तगुणे हैं। क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं और वे सभी अयोगि हैं। इस प्रकार अल्पबहुत्व प्ररूपणा जानना चाहिये। इसके साथ ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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