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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ १६५ का निर्देश किया है। अतएव इसमें किसी प्रकार की आशंका नहीं करनी चाहिए। सौधर्मकल्प के देवों से उसकी देवियां बत्तीसगुणी और बत्तीस अधिक हैं। सौधर्मकल्प की देवियों से भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं। वह इस प्रकार जानना चाहिए कि अंगुलप्रमाण क्षेत्र में वर्तमान आकाशप्रदेश के पहले वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल के साथ गुणा करने पर आकाशप्रदेशों की जो संख्या हो उतनी घनीकृत लोक की एक प्रादेशिकी सूचिश्रेणि में जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतने भवनपति देव-देवियों की संख्या है और उसके बत्तीसवे भाग में से एक न्यून भवनपति देव हैं। इस कारण सौधर्मकल्प की देवियों से भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं। भवनवासी देवों से उनकी देवियां बत्तीसगुणी और बत्तीस अधिक हैं। इस प्रकार वैमानिक और भवनवासी देव-देवियों का अल्पबहुत्व जानना चाहिए। अब पूर्व में नहीं कहा गया रत्नप्रभा के नारकों, खेचर पंचेन्द्रिय पुरुषों आदि का अल्पबहुत्व बतलाते हैंरयणप्पभिया खहयरपणिदि संखेज्ज तत्तिरिक्खीओ। सव्वत्थ तओ थलयर जलयर वण जोइसा चेवं ॥६६॥ शब्दार्थ-रयणप्पभिया-रत्नप्रभा के नारक, खहयरपणिदि-खेचर पंचेन्द्रिय, संखेज्ज-संख्यातगुण, तत्तिरिक्खीओ-उनकी तिर्यं चनी (स्त्रियां), सव्वत्थ-सर्वत्र, तओ-उनसे, थलयर-थलचर, जलयर-जलचर, वणव्यंतर, जोइसा--ज्योतिष्क, चेवं-और इसी प्रकार । गाथार्थ-उनसे रत्नप्रभा के नारक और खेचर पंचेन्द्रिय पुरुष उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हैं, उनकी स्त्रियां संख्यातगुणी हैं, १ प्रज्ञापनासूत्रगत महादंडक को परिशिष्ट में देखिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only: www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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