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बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५
संकेत करते हैं कि आदि के बारह जीवस्थानों में औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये तीन भाव होते हैं। क्योंकि ये सभी जीवस्थान पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होते हैं । मात्र करण अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में से किन्हीं के सासादन गुणस्थान भी होता है । इसलिये पूर्व में जैसे पहले और दूसरे गुणस्थान में भावों को बतलाया है उसी प्रकार से इनमें भी भावों का विधान समझ लेना चाहिये ।
लब्धि- अपर्याप्त संज्ञी में भी पूर्वोक्त तीन भाव समझना चाहिये । क्योंकि करण-अपर्याप्त संज्ञी में चौथा गुणस्थान भी संभव होने से जिन्होंने दर्शन सप्तक का क्षय किया हो, उनके क्षायिक सम्यक्त्व और जो उपशमश्रेणि में कालधर्म को प्राप्त कर अनुत्तर विमान में गये हुए हो, उन देवों के उपशम सम्यक्त्व भी हो सकता है । इसलिये औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक अथवा औपशमिक, औदायक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इस प्रकार चार-चार भाव भी होते हैं । उपर्युक्त दो सम्यक्त्व में से कोई भी सम्यक्त्व न हो तो पूर्वोक्त तीन भाव होते हैं। मात्र सम्यक्त्व क्षायोपशमिक होता है ।
पर्याप्त संज्ञी जीवों में तो चौदह गुणस्थान संभव होने से गुणस्थान क्रम से जिस प्रकार भावों का निर्देश किया है, तदनुरूप सभी भाव समझ लेना चाहिये ।
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इस प्रकार से भावद्वार की प्ररूपणा जानना चाहिये । अब अल्पबहुत्व का विचार प्रारम्भ करते हैं ।
अल्पबहुत्व प्ररूपणा
थोत्रा गब्भयमणुया तत्तो इत्थीओ तिघणगुणियाओ । तासिमसंखेज्ज
बायर उक्काया
पज्जता ॥ ६५ ॥
शब्दार्थ - थोवा - स्तोक, अल्प, गब्भय - गर्भज, मणुया - मनुष्य, : तत्तो- उनके, इत्थीओ— स्त्रिया, तिघणगुणियाओ — त्रिघनगुणी (तीन का
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