SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ पंचसंग्रह : २ उपशम भाव में उपशम चारित्र होता है और शेष तीन भाव ऊपर कहे गये अनुसार होते हैं। ___ 'चउ खीण अपुव्वाणं' अर्थात् क्षपकश्रेणिवर्ती अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और क्षीणमोह इन गुणस्थानों में चार भाव होते हैं। इसका कारण यह है कि क्षपकोणि में औपशमिक भाव का अभाव है। . _ 'तिन्न उ भावावसेसाणं' अर्थात पूर्वोक्त गुणस्थानों से शेष रहे मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यगमिथ्या दृष्टि ( मिश्र ), सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन गुणस्थानों में तीन भाव होते हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्रदृष्टि में इस प्रकार तीन भाव होते हैं-औदयिक, पारिणामिक और क्षायोपमिक । उनमें गति, जाति, लेश्या, वेद, कषाय आदि औदयिक भाव की अपेक्षा और भव्य जीव की दृष्टि से जीवत्व और भव्यत्व पारिणामिक भावापेक्षा और अभव्य मिथ्यादृष्टि जीवों के जीवत्व और अभव्यत्व पारिणामिक भाव की अपेक्षा तथा मति-अज्ञान आदि तीन अज्ञान, चक्षुदर्शन आदि तीन दर्शन और दानादि पांच लब्धि क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा हैं। । सयोगिकेवली और अयोगिकेवली गुणस्थानों में तीन भाव इस प्रकार होते हैं-औदयिक, पारिणामिक और क्षायिक । मनुष्यगति आदि औदयिक भाव की अपेक्षा, भव्यत्व, जीवत्व पारिणामिक भाव की अपेक्षा, केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, चारित्र, पूर्ण दानादि पांच लब्धि, ये सब क्षायिक भाव की अपेक्षा होती हैं। सिद्ध भगवान के क्षायिक और पारिणामिक ये जीव के स्वरूप रूप दो ही भाव होते हैं। उनमें से केवलज्ञानादि क्षायिक भाव की अपेक्षा और जीवत्व पारिणामिक भावापेक्षा होता है। जीवस्थानों में भाव : इस प्रकार से गुणस्थानों में किये गये भावों के विचार के अनुसार जीवस्थानों में भी स्वयमेव विचार कर लेना चाहिये। फिर भी यहाँ कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy