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पंचसंग्रह : २ शब्दार्थ-सम्माइ-अविरतसम्यक्त्व आदि, चउसु-चार गुणस्थानों में, तिय-तीन, चउ-चार, उवसमगुवसंतयाण-उपशमक और उपशांतमोह गुणस्थानों में, चउ-चार, पंच-पांच, चउ-चार, खीण-क्षीणमोह, अपुव्वाणं - अपूर्वकरण गुणस्थान में, तिन्नि-तीन, उ-और, भावावसेसाणंभाव अवशेष गुणस्थानों में ।
गाथार्थ-अविरत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में तीन अथवा चार भाव होते हैं। उपशमक और उपशांतमोह में चार अथवा पांच भाव, क्षीणमोह और अपूर्वकरण गुणस्थान में चार तथा शेष गुणस्थानों में तीन भाव होते हैं।
विशेषार्थ- यहाँ औपशमिक आदि पारिणामिक पर्यन्त पांच भावों में से गुणस्थानों में उनकी प्राप्ति का निर्देश किया है कि प्रत्येक गुणस्थान में कितने भाव संभव हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
'सम्माइ चउसु तिय चउ' अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानों में तीन अथवा चार भाव होते हैं । यदि तीन हों तो औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये तीनों भाव होते हैं और चार भाव हों तो पूर्वोक्त तीन के साथ क्षायिक अथवा औपशमिक भाव को मिलाने पर चार भाव होते हैं। ___ उनमें मनुष्यगति आदि गति, वेद, कषाय, आहारकत्व, अविरतत्व, लेश्या इत्यादि औदयिक भाव की अपेक्षा, भव्यत्व और जीवत्व पारिणामिक भाव की अपेक्षा, मतिज्ञानादि ज्ञान और चक्षुदर्शन आदि दर्शन, क्षायोपमिक सम्यक्त्व और दानादि लब्धिपंचक आदि क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक भाव की अपेक्षा और औपशमिक सम्यक्त्व औपशमिक भाव की अपेक्षा होते हैं। ___ यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि जब तीन भावों की विवक्षा की जाये तब सम्यक्त्व क्षायोपशमिक लेना चाहिये और क्षायिक अथवा औपमिक सहित चार भावों की विवक्षा में सम्यक्त्व क्षायिक अथवा औपर्शामक ग्रहण करना चाहिये।
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