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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४ १५३ स्थान को प्राप्त नहीं करें तो अधिक से अधिक कितने काल पर्यन्त प्राप्त नहीं करते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है किसी समय अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और सर्वविरत इन तीन गुणस्थानों को अनुक्रम से सात, चौदह और पन्द्रह दिन पर्यन्त निरन्तर कोई भी जीव प्राप्त नहीं करता है । अर्थात् किसी समय ऐसा भी संभव है कि सम्पूर्ण जीवलोक में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान को कोई भी जीव प्राप्त न करे तो उत्कृष्ट से सात दिन पर्यन्त प्राप्त नहीं करता है, उसके बाद अवश्य कोई न कोई जीव प्राप्त करता है। उसी तरह देशविरत गुणस्थान को चौदह दिन और सर्वविरत गुणस्थान को पन्द्रह दिन पर्यन्त प्राप्त नहीं करता है तथा अयोगिकेवली गुणस्थान को छह मास पर्यन्त कोई भी जीव प्राप्त नहीं करता है, तत्पश्चात् अवश्य प्राप्त करता है। उक्त कथन उत्कृष्ट की अपेक्षा समझना चाहिये और जघन्य से तो एक समय के बाद भी वे गुणस्थान पुनः प्राप्त हो सकते हैं। इस प्रकार से अंतरद्वार की वक्तव्यता जानना चाहिये । अब भागद्वार कहने का अवसर प्राप्त है, किन्तु उसका अल्पबहुत्वद्वार में समावेश हो जाने से कि अमुक जीव, अमुक की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात या अनन्त गुणे हैं और अमुक जीव पूर्व की अपेक्षा संख्यातवें, असंख्यातवें या अनन्तवें भाग हैं। जिससे इसका पृथक से निर्देश करना उपयोगी न होने से अब भावद्वार का विवेचन करते हैं। भावद्वार प्ररूपणा सम्माइचउसु तिय चउ उवसमगुवसंतयाण चउ पंच । चउ खीण अपुव्वाणं तिन्नि उ भावावसेसाणं ॥६४॥ १ गाथागत 'तिन्नी' पद से यहाँ तीन गुणस्थानों के नाम ग्रहण किये हैं। किन्तु सर्वविरति में छठे और सातवें इन दोनों गुणस्थानों का समावेश होता है । अतः चारों का भी ग्रहण किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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