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________________ बंधक -! क- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२ अनेक जीवापेक्षा गुणस्थानों का अंतर वासपुहत्तं उवसामगाण विरहो छमास खवगाणं । सासाणमीसाणं पल्लसंखंसो ॥६२॥ नाणाजीएसु शब्दार्थ - वासपुहुत्त - वर्ष पृथक्त्व, उवसामगाण - उपशमक गुणस्थानों का, विरहो - विरह - अन्तर, छमास - छह मास, खवगाणं - क्षपक गुणस्थानों का, नाणाजीएसु - अनेक जीवों में, सासाणमोसाणं -- सासादन और मिश्र का, पल्लसखंसो - पल्य का असंख्यातवां भाग । १५१ गाथार्थ - अनेक जीवों की अपेक्षा उपशमक अपूर्वकरणादि गुणस्थानों का उत्कृष्ट अंतर वर्षपृथक्त्व, क्षपक अपूर्व करणादि गुणस्थानों का छह मास और सासादन व मिश्र गुणस्थानों का पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । विशेषार्थ - जैसे ऊपर की गाथा में एक जोव की अपेक्षा गुणस्थानों का अंतरकाल बतलाया है. उसी प्रकार इस गाथा में अनेक जीवों की अपेक्षा विरहकाल यानो अयोगिकेवली आदि गुणस्थान को कोई भी जीव प्राप्त न करे तो कितने काल प्राप्त नहीं करता है, बतलाते हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है अनेक जीवों की अपेक्षा उपशमश्र णिवर्ती अपूर्वकरण से लेकर उपशांत मोह तक के किसी भी गुणस्थान का उत्कृष्ट अंतर वर्षपृथक्त्व है । तात्पर्य यह है कि इस जगत में उपर्युक्त चार गुणस्थानों में कोई भी जीव सर्वथा न हो तो वर्षपृथक्त्व पर्यन्त नहीं होता है । उसके बाद कोई न कोई जीव उस गुणस्थान को अवश्य प्राप्त करता है तथा क्षपक णिवर्ती अपूर्वकरण से लेकर क्षीणमोह तक के किसी भी गुणस्थान को और उपलक्षण से अयोगिकेवली गुणस्थान को कोई भी जीव प्राप्त न करे तो छह मास पर्यन्त प्राप्त नहीं करता है, तत्पश्चात् कोई न कोई जीव अवश्य प्राप्त करता है। अधिक से अधिक छह मास पर्यन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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