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पंचसंग्रह : २
यह एक सौ बत्तीस सागरोपम प्रमाणकाल इस प्रकार जानना चाहिये कि कोई एक मिथ्यादृष्टि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करके छियासठ सागरोपम पर्यन्त क्षायोपशमिक सम्यक्त्व युक्त रह सकता है। उसके बाद बीच में अन्तर्मुहूर्त काल मिश्रदृष्टि गुणस्थान का स्पर्श कर पुनःक्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर छियासठ सागरोपम पर्यन्त उसका अनुभव करता है। इस प्रकार एक सौ बत्तीस सागरोपम के बाद कोई धन्य जीव मोक्ष को प्राप्त करता है अथवा कोई अधन्य जीव मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। उनमें जो मिथ्यात्व को प्राप्त करता है उसके मिथ्यात्व से ऊपर के गुणस्थान में जाकर पुनः मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त करने में उपयुक्त उत्कृष्ट अंतरकाल घटित होता
है।
प्रश्न-जब पूर्वोक्त कथन के अनुसार मिथ्यात्व गुणस्थान का कुल मिलाकर अन्तमुहर्त अधिक एक सौ बत्तीस सागरोपम प्रमाण विरहकाल होता है तब गाथा में परिपूर्ण एक सौ बत्तीस सागरोपम का संकेत क्यों किया है ?
उत्तर-अन्तर्मुहूर्त काल का बहुत ही छोटा-सा अंश होने से यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की है। इसलिये इसमें किसी प्रकार का दोष नही है। _ 'इयराणं पोग्गलद्धं तो' अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान को छोड़कर सासादन गुणस्थान से लेकर उपशांतमोह तक के प्रत्येक गुणस्थान को पुनः प्राप्त करने का उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्घ पुद्गलपरावर्तन प्रमाण है । क्योंकि सासादन आदि किसी भी गुणस्थान से गिर कर पहले गुणस्थान में आने वाली आत्मा वहाँ अधिक से अधिक कुछ कम अर्घ पुद्गलपरावर्तन पर्यन्त रहती है। तत्पश्चात् अवश्य ही ऊपर के गुणस्थान में जाती है, जिससे उतना ही उत्कृष्ट अंतर होता है।
इस प्रकार एक जीव की अपेक्षा गुणस्थानों में अंतरकाल बतलाने के पश्चात अब अनेक जीवों की अपेक्षा अंतरकाल बतलाते हैं।
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