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पंचसंग्रह : २
सासायणंतरं
शब्दार्थ-पलियासंखो --- पल्य का असंख्यातवां भाग, सासादन गुणस्थान का अन्तर, सेसगाण - शेष गुणस्थानों का अन्तमुहू— अन्तमुहूर्त, मिच्छस्स - मिथ्यात्व का, बे—– दो, छसट्ठी - छियासठ सागरोपम, इयराणं - इतरों शेष का, पोग्गलद्धं तो - अर्ध पुद्गलपरावर्तन |
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गाथार्थ - सासादन गुणस्थान का जघन्य अन्तर पल्योपम का असंख्यातवां भाग और शेष गुणस्थानों का अन्तर्मुहूर्त है । मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर दो छियासठ सागरोपम और शेष गुणस्थानों का ( कुछ कम ) अर्ध पुद्गलपरावर्तन है ।
विशेषार्थ - गाथा में एक जीव की अपेक्षा गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर बतलाया है कि किसी भी गुणस्थान से गिरकर पुनः उस-उस गुणस्थान को कम से कम और अधिक से अधिक कितने काल में प्राप्त करता है । पहले जघन्य अन्तर का निर्देश करते हुए कहा है
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सासादन गुणस्थान का जघन्य अन्तर पत्योपम का असंख्यातवां भाग है | अर्था कोई जीव यदि सासादनभाव का अनुभव कर वहाँ से गिरकर पुनः सासादनभाव को प्राप्त करे तो अवश्य जघन्य से भी पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाणकाल जाने के बाद ही प्राप्त करता है, इससे पूर्व नहीं । इससे पूर्व प्राप्त न करने का कारण यह है कि औपशामिक सम्यक्त्व प्राप्त कर वहाँ से अनंतानुबंधिकषाय के उदय से गिरकर ही सासादनभाव को प्राप्त करता है । उपशम सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना कोई जीव सासादनभाव में नहीं जा सकता है । सासादन से गिरकर मिथ्यात्व में जाकर दूसरी बार उपशम सम्यक्त्व प्राप्त हो तो मोहनीय की छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता होने के बाद यथाप्रवृत्ति आदि तीन करण करने पर ही प्राप्ति होती है । मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता मिश्र और सम्यक्त्वपुंज की उद्बलना करे तब होती है और उन दोनों की उद्वलना पल्योपम के असख्यातवें भाग प्रमाण काल में होती है, जिससे पल्योपम
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