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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१
१४५ देव भवों में उत्कृष्ट दो सागरोपम काल निर्गमन करके उत्पन्न होता है। ... नरकों में भी इसी अनुमान के द्वारा जघन्य और उत्कृष्ट अंतर समझ लेना चाहिये । यानि कोई भी नरक में से- च्यवकर पुनः उस नरक में उत्पन्न हो तो उत्पत्ति का जघन्य अंतर अन्तमुहूर्त है। अंतमुहूर्त की आयुवाला कोई संक्लिष्ट परिणाम के योग से नरकयोग्य कर्म का उपार्जन कर नरक में जाता है। जैसे कि अन्तमुहूर्त की आयुवाला तंदुलमच्छ सातवें नरक में जाता है और उत्कृष्ट अंतर स्थावर का असंख्यात पुद्गलपरावर्तन रूप कायस्थिति काल है। उत्कृष्ट से इतना काल वनस्पति आदि में भटक कर उस नरक में जा सकता है।.
इस प्रकार जीवस्थानों में एक जीव की अपेक्षा अन्तर का विचार करने के बाद अब एक जीवापेक्षा गुणस्थानों में अन्तर का कथन करते हैं। एक जीवापेक्षा गुणस्थानों में अन्तर
पलियासंखो सासायणंतरं सेसगाण अंतमुहू ।
मिच्छस्स बे छसट्ठी इयराणं पोग्गलद्धतो ॥६१।। जीवाभिगमसूत्र में तो भवनपति से लेकर सहस्रार कल्प तक के देवों में जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और आनत कल्म से लेकर सर्वार्थसिद्ध महाविमान को छोड़कर शेष विजयादि चार विमान के देवों में वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट अंतर ग्रेवेयक तक के देवों में वनस्पति का असंख्यात पुद्गलपरावर्तन रूप काल और विजयादि चार में संख्यात सागरोपम प्रमाणकाल कहा है । उक्त ग्रंथ का सम्बन्धित पाठ इस प्रकार है
'भवणवासिदेवपुरिसाणं जाव सहस्सागे ताव जहन्नेणं अंतोमुहुत्त, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। आणयदेवपुरिसाणं भत्ते केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं वासपुहुत्त, उक्कोसेणं वणस्स इकालो। एवं गेवेज्जदेवपुरिसस्सवि अणुत्तरोववाइयदेवपुरिसस्स जहन्नेणं वासपुहुत्त,
उक्कोसेणं संखिज्जाइ सागरोवमाइं' इति । Jain Education International
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