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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५८ १३७ चतुरिन्द्रियों एवं सम्मूच्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रियों का उत्पत्ति की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त विरहकाल है। इस प्रकार जीवस्थानों में अनेक जीवाश्रित उत्पत्ति की अपेक्षा अन्तर का विचार करने के बाद अब उन्हीं जीवस्थानों में एक जीव की अपेक्षा अन्तर का प्रतिपादन करते हैं । जीवस्थानों में एक जीवापेक्षा अंतर तस बायरसाहारणअसन्नि अपुमाण जो ठिईकालो। सो इयराणं विरहो एवं हरियेयराणं च ॥५॥ शब्दार्थ-तस-त्रस. बायर-बादर, साहारण-साधारण, असन्निअसंज्ञी, अपुमाण- नपुसक का, जो-जो, ठिईकालो-स्थितिकाल, सो-वह, इयराणं-इतर-स्थावरादि का, विरहो-विरहकाल, एवं-इसी प्रकार, हरियेयराणं -हरित और इतर अहरति के, च-और ।। गाथार्थ-स, बादर, साधारण, असंज्ञी और नपुसकवेद का जो स्थितिकाल है, वह इतर-स्थावरादि का विरहकाल समझना चाहिये। इसी प्रकार हरित और अहरित के सम्बन्ध में जानना चाहिये। विशेषार्थ-पूर्व में अनेक जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल का विचार किया है कि जैसे देव अथवा नरकगति में भवान्तर से आकर कोई भी जीव देव या नारक रूप से उत्पन्न न हों तो कितने काल तक उत्पन्न न हों । अब एक जीव की अपेक्षा इसी अंतर का विचार करते हैं कि जैसे कोई एक जीव त्रस या बादर है, वह अधिक से अधिक कितने काल में स्थावरत्व या सूक्ष्मत्व प्राप्त करता है ? तो इसके समा १ अनेक जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल सम्बन्धी प्रज्ञापनासूत्र-गत विवेचन परिशिष्ट में देखिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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