SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचसंग्रह : ११२ उसका समयमात्र अनुभव कर, अन्य कोई सूक्ष्मसंपराय में आकर उसका समयमात्र स्पर्श कर और अन्य कोई उपशांतमोह गुणस्थान को प्राप्त कर उसका समयमात्र अनुभव कर कालधर्म को प्राप्त हो और दूसरे समय में अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है तो उसके मनुष्यायु के चरम समय पर्यन्त अपूर्वकरणादि गुणस्थान होते हैं और देवपर्याय में उत्पन्न हुए उसको पहले समय में ही अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान प्राप्त होता है। इस प्रकार उपर्युक्त चार गुणस्थानों में से किसी भी गुणस्थान में समयमात्र रहकर कालधर्म को प्राप्त हो तो उस अपेक्षा उन चारों गुणस्थानों का समयमात्र काल संभव है । अब इन्हीं अपूर्वकरणादि गुणस्थानों का अन्तर्मुहूर्त काल होना स्पष्ट करते है कि इन अपूर्वकरणादि सभी गुणस्थानों का अन्तम् हर्त काल है, अतः अन्तर्मुहूर्त के बाद अन्य गुणस्थानों में जाये अथवा मरण प्राप्त करे तो उससे उनका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त घटित होता है तथा क्षपकश्रेणि में अपूर्वकरणादि प्रत्येक गुणस्थान का एक जैसा अन्तमुहूर्त ही काल है । इसका कारण यह है कि क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ जीव समस्त कमों का क्षय किये विना मरण को प्राप्त नहीं होते हैं । इसलिये कहा है- 'समयाओ अंतमुहू अपुव्वकरणा उ जाव उवसंतो ' इस प्रकार से अपूर्वकरणादि उपशांतमोह पर्यन्त चार गुणस्थानों का काल जानना चाहिये । अब दूसरे विभाग में गर्भित क्षीणमोह और अयोगिकेवली गुणस्थानो के काल का निरूपण करते हैं- 'खीणाजोगीणतो' अर्थात् क्षीणमोह गुणस्थान और भवस्थ अयोगिकेवली का अजघन्योत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल है । इसका कारण यह है कि क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीव का मरण नहीं होता है, जिससे उस गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रहकर ज्ञानावरण आदि तीन घाति कर्मों का क्षय कर सयोगिकेवली गुणस्थान में जाता है । जिससे उसका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है और भवस्थ अयोगिकेवली पांच ह्रस्वाक्षरों का उच्चारण करते जितना काल होता है, उतने काल वहाँ रहकर समस्त अघाति कर्मों का क्षय करके मोक्ष में जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy