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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४४
विशेषार्थ-गाथा में छठे और सातवें गुणस्थान का अपेक्षादृष्टि से काल बतलाया है कि मुनिजन प्रमत्तभाव में अथवा अप्रमत्तभाव में एक समय से लेकर अन्तमुहूर्त पर्यन्त रहते हैं । तत्पश्चात् यदि प्रमत्त हों तो अवश्य अप्रमत्त गुणस्थान में जाते हैं और अप्रमत्त हों तो प्रमत्त में आते हैं। जिससे प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थानों में से प्रत्येक का जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तमुहूर्त काल है। जिसका आशय यह है
प्रमत्तमुनि अथवा अप्रमत्तमुनि जघन्य से उस-उस अवस्था में एक समय रहते हैं, तत्पश्चात् मरण संभव होने से अविरतदशा को प्राप्त हो जाते हैं । अतएव यहाँ जघन्य से एक समय काल मरने वाले की अपेक्षा घटित होता है और यदि मरण को प्राप्त न हों तो अन्तमुहूर्त काल होता है । इसी अपेक्षा उत्कृष्ट से अन्तमुहूर्त काल बतलाया है। तत्पश्चात् प्रमत्त के अवश्य अप्रमत्तता, देशविरतित्व अथवा मरण भी हो सकता है तथा अप्रमत्त के प्रमत्तत्व, कोई भी श्रेणि अथवा देशविरति आदि प्राप्त होती है।
प्रश्न-यह कैसे जाना जा सकता है कि अन्तर्मुहूर्त के बाद प्रमत्त गुणस्थान से अप्रमत्त गुणस्थान में और अप्रमत्त गुणस्थान से प्रमत्त गुणस्थान में जाते हैं ? देशविरति आदि की तरह दीर्घकाल पर्यन्त ये दोनों गुणस्थान क्यों नहीं होते हैं ? - उत्तर-संक्लेशस्थानों में वर्तमान मुनि प्रमत्त और विशुद्धिस्थानों में वर्तमान मुनि अप्रमत्त होते हैं और ये संक्लेश एवं विशुद्धि के स्थान प्रत्येक असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। यथार्थ रूप से मुनिदशा में वर्तमान मुनि जब तक उपशमणि अथवा क्षपकणि पर आरोहण न करें तब तक जीवस्वभाव से अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त संक्लेश स्थानों में रहकर विशुद्धिस्थानों में आते हैं। तथास्वभाव से दीर्घकाल पर्यन्त न तो संक्लेशस्थानों में रहते हैं और न विशुद्धिस्थानों में ही १ यहाँ जो संक्लेशस्थान कहे हैं वे अप्रमत्त की अपेक्षा समझना चाहिए,
देशविरति की अपेक्षा तो वे सभी विशुद्धिस्थान ही हैं।
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