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________________ १०८ पंचसंग्रह : २ से भी उतने काल रहकर अविरतपने को या सर्वविरतिभाव को प्राप्त करता है, उससे पूर्व नहीं तथा उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि मानने का कारण यह है कि कोई पूर्वकोटि वर्ष की आयुवाला जीव कुछ अधिक नौ मास गर्भ में रहे और उसके बाद जन्म लेने पर भी आठ वर्षपर्यन्त देशविरति अथवा सर्वविरति को प्राप्त नहीं कर सकता है । इसका कारण यह है कि आठ वर्ष से कम आयु वाले के तथास्वभाव से देशविरति अथवा सर्वविरति को प्राप्त करने के योग्य परिणाम नहीं होते हैं, जिससे उतने काल पर्यन्त किसी भी प्रकार का चारित्र प्राप्त नहीं होता है । यानि उतनी आयु बीतने के बाद जो देशविरति प्राप्त करे उसकी अपेक्षा देशविरत गुणस्थान का देशोन पूर्वकोटि काल घटित होता है, इससे अधिक घटित नहीं होता है। क्योंकि पूर्वकोटि से अधिक आयुवाले जीव भोगभूमिज होते हैं और उनके विरति परिणाम नहीं होते हैं, मात्र आदि के चार गुणस्थान होते हैं । इस प्रकार से अविरत सम्यग्दृष्टि और देर्शावरत गुणस्थान का कालप्रमाण बतलाने के बाद अब प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान का एक जीव की अपेक्षा काल बतलाते हैं । प्रमत्त, अप्रमत्त संयत गुणस्थान का काल समयाओ अंतमुहू पमत्त अपमत्तयं भयंति मुणी । देसूण पुव्वकोडिं अन्नोन्नं चिट्ठहि भयंता ||४४ || अंतमुहू- अंतर्मुहूर्त पर्यन्त, भयंति — सेवन करते हैं, शब्दार्थ - समयाओ -- एक समय से लेकर - पमत्त अपमत्तयं - प्रमत्त और अप्रमत्त भाव को, मुणी - मुनि, देसूण - देशोनं, पुत्र्वकोडि - पूर्वकोटि, अन्नोन्नं - परस्पर एक दूसरे को चिट्ठहि-रहते हैं, भयंता — सेवन करते हुए । 1 गाथार्थ - मुनि एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रमत्त अथवा अप्रमत्त भाव को सेवन करते हैं और परस्पर एक दूसरे गुणस्थान को देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त सेवन करते हुए रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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