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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४० १०१ उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के समस्त समयों में से उत्सर्पिणी के प्रथम समय से प्रारम्भ करके तत्पश्चात् क्रमपूर्वक मरण को प्राप्त करके जितना काल जाये उसे सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। इसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि कोई जीव उत्सर्पिणी के प्रथम समय में मरण को प्राप्त हुआ, तत्पश्चात् वही जीव समय न्यून बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण काल व्यतीत होने के बाद यदि उत्सर्पिणी के दूसरे समय में मरण को प्राप्त हो तो वह दूसरा समय मरण से स्पर्श किया गया माना जायेगा। यदि उत्सर्पिणी के अन्य अन्य समयों को मरण द्वारा स्पर्श किया है, किन्तु क्रमपूर्वक उनका स्पर्श नहीं किये जाने ने उनकी स्पर्शना गणना में ग्रहण नहीं की जाती है। अब कदाचित वह जीव उत्सर्पिणी के दूसरे समय में मरण को प्राप्त न हो किन्तु अन्य समय में मरण को प्राप्त हो तो वह भी नहीं गिना जायेगा परन्तु अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी व्यतीत हो जाने के बाद जब उत्सर्पिणी के दूसरे समय मरण को प्राप्त करे तभी वह समय गिना जायेगा। इस प्रकार क्रमपूर्वक उत्सर्पिणी के सभी समयों को और उसके बाद अवसर्पिणी के समस्त समयों को मरण द्वारा स्पर्श करते हुए जितना काल हो, उसे सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। उत्सर्पिणी के पहले समय में मरण को प्राप्त करे तो उस उत्सर्पिणी और उसके बाद की अवसर्पिणी जाने के बाद की उत्सर्पिणी के दूसरे समय में मरण को प्राप्त हो तो वह गिना जायेगा। इस प्रकार क्रमपूर्वक उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी के समयों में मरण को प्राप्त करते-करते जितना काल होता है, उसे सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। १ बादर और सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन के उक्त लक्षणों का सारांश यह है कि जितने समय में एक जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सब समयों में क्रम या बिनाक्रम के मरण कर चुकता है, उतने काल को बादर काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं तथा कोई एक जीव किसी विवक्षित उत्सपिणी काल के पहले समय में मरा, पुनः उसके दूसरे समय में मरा, पुनः तीसरे समय में मरा, इस प्रकार क्रमवार उत्सर्पिणी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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