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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६ ६६ चौदह राजू प्रमाण लोक के समस्त प्रदेशों में किसी एक जीव को क्रमपूर्वक-एक के बाद एक, इस तरह के क्रम से एक-एक आकाशप्रदेश का स्पर्श कर मरण को प्राप्त होते हुए जितना काल होता है, उतने को सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। जिसका आशय यह है कि यद्यपि जीव की जघन्य अवगाहना भी असंख्य आकाशप्रदेश-प्रमाण होती है, जिससे एक आकाशप्रदेश का स्पर्श कर मरण संभव नहीं है, लेकिन जिस समय उस क्षेत्र के किसी भी एक आकाशप्रदेश सम्बन्धी स्पर्शना की विवक्षा करके उसको अवधिरूपमानना चाहिये । तत्पश्चात् उस आकाशप्रदेश से अन्य भाग में रहे हए आकाश प्रदेशों को मरण द्वारा स्पर्श करे तो उसको गिना नहीं जाता है, परन्तु अनन्तकाल में उस मर्यादा रूप एक आकाशप्रदेश के निकटवर्ती दूसरे आकाशप्रदेश को मरण द्वारा स्पर्श करे तब वह स्पर्शना गिनी जाती है। इसी प्रकार उसके निकटवर्ती तीसरे आकाशप्रदेश का स्पर्श करके जितने काल में मरण को प्राप्त करे वह गिना जाता है । इस प्रकार क्रमपूर्वक लोकाकाश के समस्त आकाश प्रदेशों को मरण द्वारा स्पर्श करते जितना काल हो, उसे सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन कहते हैं।' इस प्रकार से बादर, सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन का स्वरूप बतलाने के बाद अब यथाक्रम से बादर और सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन का स्वरूप बतलाते हैं। १ इन दोनों क्षेत्र पुद्गलपरावर्तनों में केवल इतना अन्तर है कि बादर में तो क्रम का विचार नहीं किया जाता है। उसमें व्यवहित प्रदेश में मरण करने पर भी यदि वह प्रदेश पूर्वस्पृष्ट नहीं है तो उसका ग्रहण होता है । अर्थात् बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन में क्रम या बिना क्रम के समस्त प्रदेशों में मरण कर लेना ही पर्याप्त समझा जाता है किन्तु सूक्ष्म में समस्त प्रदेशों में क्रम से ही मरण करना चाहिए, अक्रम से जिन प्रदेशों में मरण होता है, उनकी गणना नहीं की जाती है। पहले से दूसरे में अधिक समय लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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