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________________ ५५ पंचसंग्रह . प्रकार की शक्ति नहीं होती है। इन दोनों प्रकार के जीवों के भी निम्नप्रकार से दो-दो भेद हैं अपर्याप्त जीव-१. लब्धि-अपर्याप्त और २. करण-अपर्याप्त ।' पर्याप्त जीव-२. लब्धिपर्याप्त और २. करणपर्याप्त । लब्धि-अपर्याप्त जीव वे हैं जो अपर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं, किन्तु स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं करते । अर्थात् जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, वे लब्धि-अपर्याप्त कह १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में करण-अपर्याप्त के बदले निर्वृत्ति-अपर्याप्त शब्द का प्रयोग किया है । उसका लक्षण इस प्रकार है-- पज्जत्तस्स य उदये णियणियपज्जत्तिणिट्ठदो होदि। . जाव सरीरमपुण्णं णिवत्ति अपुण्णगो ताव ॥ -गोम्मटसार जीवकांड, गाथा १२० अर्थात् पर्याप्तनामकर्म के उदय से जीव अपनी योग्य पर्याप्तियों से पूर्ण होता है, तथापि जब तक उसकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है, तब तक वह पर्याप्त नहीं कहलाता है, किन्तु निर्वृत्ति-अपर्याप्त कहलाता है। लेकिन श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में करण शब्द से शरीर, इन्द्रिय आदिआदि पर्याप्तियाँ, इतना अर्थ किया गया हैकरणानि शरीराक्षादीनि । -लोकप्रकाश ३/१० अतएव उक्त मंतव्य के अनुसार जिसने शरीरपर्याप्ति पूर्ण की, किन्तु इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण नहीं की, वह भी करण-अपर्याप्त है। इसी प्रकार उत्तर-उत्तर की पर्याप्ति के लिए समझना चाहिये । अर्थात् शरीररूप करण के पूर्ण करने से करण-पर्याप्त, किन्तु इन्द्रियरूप करण के पूर्ण न करने से करण-अपर्याप्त । लेकिन जब जीव स्वयोग्य सम्पूर्ण पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है, तब उसे करण-अपर्याप्त नहीं, करण-पर्याप्त कहेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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