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यौगोपयोगमार्गणा : गाथा ६
है। उत्पत्तिस्थान को प्राप्त हुआ जीव आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त सम्भव नहीं है। क्योंकि उत्पत्तिस्थान को प्राप्त जीव प्रथम समय में ही आहार करता है। इससे स्पष्ट है कि आहारपर्याप्ति की पूर्णता उत्पत्ति के प्रथम समय में ही होती है।
यदि उत्पत्तिस्थान को प्राप्त हुआ जीव आहारपर्याप्ति द्वारा अपर्याप्त होता तो उत्तरसूत्र को इस प्रकार कहना चाहिए था कि 'सिय आहारए सिय अणाहारए'-आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त आहारी भी होता है और अनाहारी भी होता है। जैसा कि शरीर आदि पर्याप्तियों के सम्बन्ध में कहा है-'सिय आहारए सिय अणाहारएकदाचित् आहारी भी होता है और कदाचित् अनाहारी भी होता है।'
सारांश यह है कि आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव विग्रहगति में अनाहारी होता है और उत्पत्तिस्थान में आकर आहार करता है, तब आहारी होता है, ऐसा तभी कहा जा सकता है कि जिस समय उत्पत्तिस्थान में आकर उत्पन्न होता है और उस समय यदि आहारपर्याप्ति पूर्ण न हो । परन्तु उसी समय आहारपर्याप्ति पूर्ण होती है। इसलिए आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त तो विग्रहगति में ही होता है और उस समय अनाहारी होता है। इसी से ही आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त का अनाहारित्व विग्रहगति में ही सम्भव है और शरीरादि पर्याप्ति से अपर्याप्त विग्रहगति में अनाहारो होता है और उत्पत्तिस्थान में उत्पन्न होने के बाद जब तक शरीरादि पर्याप्तियाँ पूर्ण न करे, तब तक उस-उस पर्याप्ति से अपर्याप्त आहारी होता है। यानी शरीरादि पर्याप्ति से अपर्याप्त अनाहारी और आहारी, इस तरह दोनों प्रकार का होता है। ___ जो स्वयोग्य पर्याप्तियों से विकल हैं, अर्थात् पूर्ण नहीं करते हैं, वे अपर्याप्त और स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने वाले जीव पर्याप्त कहलाते हैं । अर्थात् पर्याप्त जीवों में गृहीत पुद्गलों को आहार आदि रूप में परिणत करने की शक्ति होती है और अपर्याप्त जीवों में इस
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