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________________ योगोपयोगमार्गणा : गाथा ६ की हैं। इन्द्रियों की बाह्य आकार-रचना को बाह्य निवृत्ति और आन्तरिक आकार-रचना को आभ्यंतर निवृत्ति कहते हैं। आभ्यंतर निवत्ति की विषय ग्रहण करने की शक्ति को उपकरण न्द्रिय कहते हैं । उपकरणेन्द्रिय नि त्ति का उपकार करती है, इसलिए इसके भी आभ्यंतर और बाह्य, ये दो भेद हो जाते हैं। जैसे कि नेत्र इन्द्रिय में कृष्ण-शुक्ल मण्डल आभ्यंतर उपकरण है तथा पलक, बरौनी आदि बाह्य उपकरण। भावेन्द्रिय के लब्धि और उपयोग यह दो भेद होते हैं।' मतिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम-चेतनाशक्ति की योग्यताविशेष को लब्धिरूप तथा लब्धिरूप भावेन्द्रिय के अनुसार आत्मा की विषय-ग्रहण में होने वाली प्रवृत्ति को उपयोगरूप भावेन्द्रिय कहते हैं । जीवों के एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, आदि पांच भेद मानने का कारण द्रव्येन्द्रियाँ हैं। बाहर में प्रगट रूप से जितनी-जितनी इन्द्रियाँ दिखलाई देती हैं, उनके आधार पर ये एकेन्द्रिय आदि भेद किये जाते हैं। जैसे कि एकेन्द्रिय जीवों में सिर्फ पहली स्पर्शनेन्द्रिय होती है। इसीलिए उनको एकेन्द्रिय जीव कहते हैं और द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में स्पर्शनेन्द्रिय के अनंतर क्रमशः रसन, घ्राण, चक्ष, श्रोत्र में से उत्तरोत्तर एक-एक इन्द्रिय बढ़ती जाती है । लेकिन सभी संसारी जीवों में भावेन्द्रियाँ पांचों होती हैं। एकेन्द्रिय जीवों के पांच प्रकार हैं-१. पृथ्वीकाय, २. अप्काय, ३. तेउकाय, ४. वायुकाय, ५. वनस्पतिकाय । इनके मात्र एक स्पर्शनेन्द्रिय होने से ये स्थावर कहलाते हैं और द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के -तत्त्वार्थसूत्र २/१८ १ (क) प्रज्ञापना. २/१५ (ख) लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् । २ (क) स्थानांग ५/३६३ (ख) पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा । -तत्त्वार्थसूत्र २/१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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