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योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ६
१. सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, २. सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, ३. बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, ४. बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, ५. द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, ६. द्वीन्द्रिय पर्याप्त, ७. त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, ८. त्रीन्द्रिय पर्याप्त, ६. चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, १०. चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, ११. असंज्ञी पंचेन्द्रिय अप
प्ति, १२. असंज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त, १३. संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, १४. संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त ।' ___ इन वर्गों की ऐसी विशेषता है कि ससारी जीवों के अनन्त होने पर भी इन चौदह वर्गों में से किसी-न-किसी वर्ग में उनका समावेश हो जाता है। जीवस्थान के भदों का आधार ।
प्राप्त इन्द्रियों की मुख्यता से उक्त चौदह भेद बताये गये हैं। इन्द्रियापेक्षा संसारी जीवों की पांच जातियाँ (प्रकार) हैं—एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । जाति का अर्थ है तद्भवसादृश्य लक्षणवाला सामान्य ।' अर्थात् जिस शब्द के बोलने या सुनने से सभी समान गुणधर्म वाले पदार्थों का ग्रहण हो जाये, उसे जाति कहते हैं। जैसे- मनुष्य, गाय, भैंस आदि बोलने और सुनने से सभी प्रकार के मनुष्यों, गायों, भैसों आदि का ग्रहण हो जाता है, उसी प्रकार एकेन्द्रिय जाति, द्वोन्द्रिय जाति आदि कहने से एक इन्द्रिय वाले, दो इन्द्रिय वाले आदि सभी जीवों का ग्रहण हो जाता है। जीवों में इस प्रकार के अव्यभिचारी सादृश्य से एकपने का बोध कराने का कारण जाति-नामकर्म है।
१ (क) द्रव्यसंग्रह, गाथा ११, १२ (ख) समवायांग, १४/१ (ग) गोम्मटसार जीवकांड, गाथा ७२
__ दि. पंचसंग्रह में अपेक्षाभेद से जीवस्थानों के चौदह के अतिरिक्त इक्कीस, तीस, बत्तीस, छत्तीस, अड़तीस, अड़तालीस, चउवन और
सत्तावन भेद भी बतलाये हैं, जिनका विवरण परिशिष्ट में देखिये । २ तत्थ जाइ तब्भवसारिच्छलक्खण-सामण्णं ।
... -धवला १/१, १, १/१७/५
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