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________________ पंचसंग्रह मार्गणास्थान सहभावी और गुणस्थान क्रमभावी हैं। गुणस्थान एक के पश्चात् दूसरा होता है । एक का दूसरे से सम्बन्ध नहीं है । लेकिन गुणस्थानों का क्रम बदलने पर भी मार्गणा के चौदह भेदों में से कुछ एक मार्गणाओं को छोड़कर प्रायः सभी मार्गणायें एक जीव में एक साथ पाई जा सकती हैं । जीवस्थान, मार्गणास्थान और होते हैं। जिनके नाम और उनके लक्षण जीवस्थानों में योगप्ररूपणा अब ग्रन्थकार आचार्य क्रमनिर्देशानुसार पहले जीवस्थानों में योगों का निरूपण करते हैं विगला सन्नी पज्जत्तएसु लब्भंति कायवइयोगा । सच्चेवि सन्निदज्जत्तएस सेसेसु का ओगो ॥६॥ शब्दार्थ - विगला सन्नीपज्जत्तएसु-विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पर्याप्तकों में, लब्भंति- - प्राप्त होते हैं, कायवइयोगा - काय और वचन योग, सत्वेविसभी, सन्निपज्जत्तएसु-संज्ञी पर्याप्तकों में, सेसेसु – शेष में, काओगोकाययोग | ४६ गुणस्थान के चौदह चौदह भेद यथास्थान आगे कहे जायेंगे । गाथार्थ - पर्याप्त विकलेन्द्रियों और असंज्ञी पंचेन्द्रियों में काय और वचन योग तथा संज्ञी पर्याप्तकों में सभी योग होते हैं और शेष जीवस्थानों में काययोग ही होता है । विशेषार्थ - गाथा में सामान्य से जीवस्थानों में योगों का निर्देश किया है । यद्यपि ग्रन्थकार आचार्य ने स्वयं जीवस्थानों की संख्या और नामों का निर्देश आगे किया है। लेकिन विशेष उपयोगी और आवश्यक होने से यहाँ उनकी संख्या और नाम बतलाते हैं । समस्त संसारी जीवों के अधिक-से-अधिक चौदह वर्ग हो सकते हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैं १ बंधकद्वार, गाथा ८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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