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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ५ . उसकी मर्यादा है। अतः रूपो द्रव्य को हो जाननेरूप मर्यादा वाला आत्मा को जो प्रत्यक्षज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं ।' अथवा बाह्य अर्थ को साक्षात् करने वाले आत्मा के व्यापार को अवधिज्ञान कहते हैं। ये तीनों ज्ञान-मतिज्ञान, श्र तज्ञान और अवधिज्ञान जब मिथ्यात्वमोह के उदय से कलुषित होते हैं, तब वस्तुस्वरूप को यथार्थरूप से न जानने वाले होने के कारण अनुक्रम से मति-अज्ञान, श्र त-अज्ञान और विभंगज्ञान कहलाते हैं । ३ विभंगज्ञान में 'वि' शब्द विपरीत अर्थ का वाचक है। अतः जिसके द्वारा रूपी द्रव्य का विपरीत भंग-बोध होता है, वह विभंगज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान अवधिज्ञान से उलटा है। मनःपर्यवज्ञान--'मन', 'परि' और 'अव' इन तीन का संयोगज रूप मनःपर्यव शब्द है। इनमें से 'परि' शब्द सर्वथा अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, 'अवनं अवः'-जानना, 'मनसि मनसो वा पर्यवः मनःपर्यवः'-मन के भावों का सर्वथा रूप से जो ज्ञान होता है, उसे मनःपर्यवज्ञान कहते हैं, अर्थात् जिसके द्वारा ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञो पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों, विचारों को जाना जा सके, उसे मनःपर्यव या मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं । अथवा संपूर्णतया मन को जो जाने वह मनःपर्याय १ (क) यद्वा अवधिर्मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा, तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधि:, अवधिश्चासौ ज्ञानं च अवधिज्ञानम् । -पंचसंग्रह मलयगिरि टीका, पृ. ६ (ख) रूपिष्ववधे । -तत्त्वार्थसूत्र १/२८ २ यद्वा अवधानम् आत्मनोऽर्थसाक्षात्करणव्यापारोऽवधिः अवधिश्चासौ ज्ञानं चावधिज्ञानम् । -नन्दीसूत्र टीका ३ मतिश्रु तावधयो विपर्ययश्च । -तत्त्वार्थसूत्र १/३२ ४ विभंगमति विपरीतो भङ्गः परिच्छित्तिप्रकारो यस्य तद् विभङ्गम् । -पंचसंग्रह मलयगिरि टीका, पृ. ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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