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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ५ ३५ मति श्रुत ज्ञान और मति श्रत अज्ञान ये चार ज्ञान पदार्थ को जानने में पर-निमित्तों की अपेक्षा वाले होने से परोक्ष हैं तथा अवधि, मनः पर्यव और केवलज्ञान तथा विभंगज्ञान प्रत्यक्ष हैं । इनमें भी अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और विभंगज्ञान मूर्त पदार्थों को जानने वाले होने से देशप्रत्यक्ष हैं तथा मूर्त-अमूर्त सभो त्रिकालवर्ती पदार्थों को जानने वाला होने से केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष कहलाता है । अब ज्ञानोपयोग के उक्त आठ भेदों का सरलता से बोध कराने के लिये पहले पांच ज्ञानों के लक्षणों का विचार करते हैं और इन्हीं के बीच यथाप्रसंग तीन अज्ञानों के लक्षणों का भी उल्लेख किया जायेगा । मतिज्ञान - 'मन् अवबोधे' अर्थात् मन् धातु जानने के अर्थ में प्रयुक्त होती है । अतः मनन करना, जानना, उसे मति कहते हैं । अथवा पांच इन्द्रियों और मन के द्वारा जो नियत वस्तु का बोध होता है, उसे मति कहते हैं । अर्थात जिस योग्य देश में विद्यमान विषय को इन्द्रियाँ जान सकें, उस स्थान में रहे हुए विषय का पांच इन्द्रियों और मन रूप साधन के द्वारा जो बोध होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं ।" मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध, ये सभी मतिज्ञान के नामान्तर हैं। (ख) अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्त्यक्ष आत्मा । तमेव "प्रतिनियतं - सर्वार्थसिद्धि १/१२ प्रत्यक्षम् । १ मननं मतिः यद्वा मन्यते इंद्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः, योग्यदेशाऽव स्थितवस्तुविषय इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेषः, मतिश्चासौ ज्ञानं च मतिज्ञानम् । Jain Education International - पंचसंग्रह मलयगिरिटीका, पृ. ६ २ मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । For Private & Personal Use Only - तत्त्वार्थसूत्र १/१३ www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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