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पंचसंग्रह
३ विभंगज्ञान और ज्ञान के पांच भेद हैं-१ मतिज्ञान, २ श्र तज्ञान, ३ अवधिज्ञान, ४ मन पर्यवज्ञान, ५ केवलज्ञान । इस प्रकार तीन अज्ञान और पांच ज्ञान, कुल मिलाकर ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं।'
ज्ञानोपयोग के उक्त आठ भेदों में अज्ञानत्रिक को ग्रहण करने का कारण यह है कि मिथ्यात्व के उदय से ये विपरीत अभिप्राय वाले होते हैं, लेकिन जब ये तीनों ही सम्यक्त्व के सद्भाव में विपरीत अभिनिवेश का अभाव होने से सम्यक् होते हैं तो सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं। सारांश यह है कि ज्ञान जीव का गुण है और गुण, गुणी के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता है। अज्ञान भी ज्ञान का रूप है लेकिन मिथ्यात्व के कारण विपरीत है, जो औपाधिक है और उस उपाधि के दूर होने पर सहज स्वाभाविक ज्ञान रूप में परिणत हो जाता है।
उक्त आठ प्रकार का ज्ञानोपयोग प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है। पर-निमित्तसापेक्ष पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान को परोक्ष'
और परनिमित्तों के बिना साक्षात आत्मा के द्वारा होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं।
१ (क) सागारोवओगे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठविहे पण्णत्ते ।
-प्रज्ञापना. पद २६ (ख) णाणं अट्ठवियप्पं मदि सुदि ओही अणाणणाणाणि । मणपज्जवकेवलमवि पन्चक्खपरोक्खभेयं च ।।
-द्रव्यसंग्रह, गाथा ५ (ग) सर्वार्थसिद्धि २/8 २ पच्चक्खं च परोक्खं अणेण णाणं ति णं बैंति ।
----गोम्मटसार जीवकांड, गाथा २६६ ३ ज परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदमढेसु ।
-प्रवचनसार, गाथा ५८
__ ४ (क) जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं ।
-प्रवचनसार, गाथा ५८
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