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पंचसंग्रह
के विकल्प द्वारा मात्र स्वरूप का ही विचार किये जाने से यथोक्त लक्षणरूप सत्य या असत्य नहीं है । इस रूप में मन के द्वारा किया जाने वाला विचार असत्यामृषा मनोयोग कहलाता है ।
उक्त कथन भी व्यवहारनयापेक्षा जानना चाहिये । अन्यथा विप्रतारण - ठगाई आदि दुष्ट मलिन आशयपूर्वक यदि विचार किया जाता है तो उसका असत्य में और शुद्ध आशय से विचार किया जाता है तो उसका सत्य में अन्तर्भाव हो जाता है ।
सारांश यह है कि सत्य और असत्य यह दो विकल्प मुख्य हैं और शेष दो विकल्प - सत्यासत्य और असत्यामृषा व्यवहार दृष्टिसापेक्ष हैं। लेकिन निश्चय और व्यवहार ये दोनों नयसापेक्ष हैं, अतः उनको भी भेद रूप में माना है। क्योंकि मानसिक चिन्तन के ये रूप भी हो सकते हैं ।
इस प्रकार से मनोयोग के चार भेद जानना चाहिये ।
वचनयोग के भेदों के लक्षण
विचार की तरह वचन के भी सत्य आदि चार प्रकार होते हैं । अतः मनोयोग की तरह वचनयोग के चार भेद हैं और नाम भी तदनुरूप हैं
१. सत्य वचनयोग, २. असत्य वचनयोग, ३. उभय वचनयोग, ४ असत्यामृषा वचनयोग |
दस प्रकार के सत्य' अर्थ के वाचक वचन को सत्य वचन और उससे होने वाले योग को सत्य वचनयोग कहते हैं तथा इससे जो विपरीत है, उसको मृषा-असत्य और जो कुछ सत्य और कुछ असत्य का १ जनपदसत्य, सम्मतिसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीतिसत्य, व्यवहारसत्य, सम्भावनासत्य, भावसत्य, उपमासत्य, इस प्रकार सत्य के दस भेद हैं ।
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